साथी रे बिन प्रीत तुम्हारी रीती है मन की गागर
नदिया की तृष्णा हरे कैसे लवणित बूँद -बूँद सागर
अवगुंठित भाव होकर अधीर
गीतों में निरी भरते हैं पीर
विरह कंटक चुभ हिय घाव करें
पीड़ा अँखियन कर जायँ उजागर
साथी रे बिन प्रीत तुम्हारी रीती है मन की गागर
नदिया की तृष्णा हरे कैसे लवणित बूँद -बूँद सागर
सिसकती गलियाँ पनघट रोता
नीर जमुना के नैना भिगोता ,
श्वास मरीचिका में उलझाये
छल-बल से मोरा नटवर नागर
साथी रे बिन प्रीत तुम्हारी रीती है मन की गागर
नदिया की तृष्णा हरे कैसे लवणित बूँद -बूँद सागर
संत्रस्त सम्मूढ़ कुंदन किसलय
तज कदम्ब कि डार धूरि में विलय
कर कुंठित कर्ण भरमाय रहा
बाँसुरिया राग तिलस्मी आगर
साथी रे बिन प्रीत तुम्हारी रीती है मन की गागर
नदिया की तृष्णा हरे कैसे लवणित बूँद -बूँद सागर
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Comment
संत्रस्त सम्मूढ़ कुंदन किसलय
तज कदम्ब डार धूलि में विलय
कर कुंठित कर्ण भरमाय रहा
सुर बाँसुरी तिलस्मी आगर
साथी रे बिन प्रीत तुम्हारी रीती है मन की गागर
सुन्दर बंद हुआ है, आदरणीया.
वैसे पूरे गीत को थोड़ा समय देना था. बहुत अच्छी रचना होने से रह गयी जबकि भाव-शब्द विस्तार संभव था.
सादर
आदरणीय राज कुमार जिंदल जी प्रभूत आभार आपका रचना को सराहा
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