२१२२/२१२२/२१२२/२१२
वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।
विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।
लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े हैं सीढ़ियाँ,
शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।
भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,
दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।
बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,
दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।
खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,
अब हलक की प्यास, लोगों की सुखाना चाहते।
शहरियत से बाँधकर, बँधुआ किया ग्रामीण को,
गाँव का अस्तित्व ही, शायद मिटाना चाहते।
सिर चढ़ी अंग्रेज़ियत, देशी भुला दीं बोलियाँ,
बदनियत फिर से, गुलामी को बुलाना चाहते।
देश जाए या रसातल, या हो दुश्मन के अधीन,
दे हवा आतंक को, कुर्सी बचाना चाहते।
कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें साथियों,
खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते।
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामानी
Comment
आदरणीय गणेश जी, बृजेश जी, केवलप्रसाद जी, राम शिरोमणि जी,अनुराग जी, संजय जी, आप सबकी वाह वाह सुनकर मैं भी स्वयं के लिए वाह वाह कह रही हूँ। वैसे यहाँ भला कौन सुनने वाला और साझा करने वाला है। आप सबकी स्नेह भरी टिप्पणियों से रक्त संचार में वृद्धि महसूस कर रही हूँ। आप सबका हार्दिक धन्यवाद
साभार सादर
वाह! वाह! बार बार पढ़ा और हर बार अधिक जोर से यह आवाज निकली। और क्या कहूं! कुछ कहा ही नहीं जा सकता इसके सिवा! बहुत सुन्दर! मेरी ढेरों बधाई स्वीकारें!
वाह वाह, किसे छोडूं किसे पकडूं , सभी शेर एक से बढ़कर एक, जोरदार कहन और जोरदार शिल्प, एक दम से ध्यान खिचती है यह ग़ज़ल , एक शेर को विशेष कोट करना चाहता हूँ, शायरा ने जिस अंदाज से कही है वाह वाह, जबरदस्त, बहुत बहुत बधाई आदरणीया कल्पना रामानी जी ।
खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,
अब हलक की प्यास, लोगों की सुखाना चाहते।
भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,
दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।... वाह! वाह!वाह!वाह!बहुत खूब...
वाह बेहद सुंदरता से यथार्थ चित्रण किया आपने बधाई हो
खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,
अब हलक की प्यास, लोगों की सुखाना चाहते।
भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,
दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।... वाह! बहुत खूब...
सुन्दर गजल के लिए सादर बधाई स्वीकारें आदरणीया कल्पना रामानी जी...
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