बहर --रमल मुसद्दस सालिम
2122 2122 2122
उम्र जितनी तेज़ बढती जा रही है
वो खुदाया पास मेरे आ रही है
राह में किस मोड़ पर हो जाए मिलना
जिन्दगी ये सोचती सी जा रही है
क्या किसी तूफ़ान का संकेत है ये
रेत में बुलबुल नहा कर जा रही है
जानते हैं भाग्य अपना पीत पत्ते
फ़स्ल देखो पतझड़ों की आ रही है
खुल गयीं हैं जुल्फ उसकी आज शायद
वादियों में जो घटा सी छा रही है
बादलों में दूर इक परछाई आकर
ख़ास कर क्यों मुस्कुराती जा रही है
क्या खबर किस रोज़ सज जाएगा मंडप
सोच दुल्हन पैरहन सिलवा रही है
लौट जाएगा परिंदा नीड़ में फिर
सोच कर क्यों झुरझुरी सी आ रही है
जो अधूरे काम अब वो पूर्ण कर ले
'राज' फिर ये जिंदगानी जा रही है
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(मौलिक अप्रकाशित )
Comment
वाह वाह वाह आदरणीया ग़ज़ब की ग़ज़ल पेश की है आपने
सुन्दर और सहज शब्दावली मोतियों से जड़े अशआर वाह
ढेरों दाद क़ुबूल कीजिये सादर
आदरेया,
एक सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुत की आपने! विशेष तौर पर यह शे'र पसंद आया ..
क्या किसी तूफ़ान का संकेत है ये
आज बुलबुल रेत में नहा रही है -- बहुत ही ख़ूबसूरत ख़याल लगा यह! मिस्रए सानी पर नज़रे सानी फ़रमा लें.. प्रवाह तनिक बाधित प्रतीत हो रहा है! सादर,
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