सुबह दरवाजे पे देखा
ढेरों फूल, हैं बिखरे
कहीं से, रात को तूफ़ान
लेकर साथ आया था
मेरी ही याद उन्हें आई ;कुछ श्रद्धा रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
सोई थी बेखबर ऐसे
वो ख़्वाबों में आया था
ना ये आभास था मुझको
कुंडा खटखटाया था
उनींदी पलके बोझिल सी; सपने गढ़ती रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
सुबह चिड़ियों के कलरव ने
नींद मेरी खुलवाई
मिले थे पुष्प वहां अनगिन
खोलने द्वार जो आई
सुभागी घर की वो देहरी; महकती ही रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
मेरी बगिया के कुछ पुहुप
नित उनको चिढाते थे
निरे जंगली कहते और
मन में मुस्कुराते थे
दर्दे दिल की खलिश में की;कोई मिन्नत रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
लिए होंगे पवन से पंख
उड़कर साथ आने को
पकड़ कर हाथ तूफ़ान का
वो आये रिझाने को
छुपी दिलों में कोई ख्वाहिश; मचलती सी रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
श्याम नारायण वर्मा जी हार्दिक आभार आपका गीत आपको पसंद आया
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ..
गीत को सराहने हेतु आपका हार्दिक आभार प्रज्ञा जी |
सुंदर रचना बधाई
क्रांतिकारी अमन जी !!आभार आपका
रचना क्रन्तिकारी है बधाई !
प्रिय महिमा श्री जी आपकी प्रशंसा पाकर गीत धन्य हुआ हार्दिक आभार
ब्रजेश कुमार जी गीत पर आपकी प्रतिक्रिया पाकर लेखनी को संबल मिला ह्रदय तल से आभार
वाह !! आदरणीया .. बहुत ही सुंदर .. दिल को छु गयी .. बहुत-२ बधाई आपको
आदरणीया बहुत ही सुन्दर! जितने सुन्दर भाव, उतना ही सुन्दर शब्द चयन! मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें!
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