सुबह दरवाजे पे देखा
ढेरों फूल, हैं बिखरे
कहीं से, रात को तूफ़ान
लेकर साथ आया था
मेरी ही याद उन्हें आई ;कुछ श्रद्धा रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
सोई थी बेखबर ऐसे
वो ख़्वाबों में आया था
ना ये आभास था मुझको
कुंडा खटखटाया था
उनींदी पलके बोझिल सी; सपने गढ़ती रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
सुबह चिड़ियों के कलरव ने
नींद मेरी खुलवाई
मिले थे पुष्प वहां अनगिन
खोलने द्वार जो आई
सुभागी घर की वो देहरी; महकती ही रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
मेरी बगिया के कुछ पुहुप
नित उनको चिढाते थे
निरे जंगली कहते और
मन में मुस्कुराते थे
दर्दे दिल की खलिश में की;कोई मिन्नत रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
लिए होंगे पवन से पंख
उड़कर साथ आने को
पकड़ कर हाथ तूफ़ान का
वो आये रिझाने को
छुपी दिलों में कोई ख्वाहिश; मचलती सी रही होगी
दरख्तों ने दिए आशीष कोई मर्जी रही होगी
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
प्रिय विनीता शुक्ला जी इस उत्साह वर्धन हेतु दिल से आभारी हूँ |
इस सुन्दर, संवेदनशील रचना पर हार्दिक बधाई, राजेश कुमारी जी।
आदरणीया अन्नपूर्णा जी गीत पर सराहना हेतु हार्दिक आभार
प्रिय राम शिरोमणि पाठक जी हार्दिक आभार
bahut hi sundar geet ke liye badhai swikaren adarniya rajesh kumari ji .
आदरणीया राजेश कुमारीजी,बहुत सुंदर गीत लिखा है अपने //हार्दिक बधाई
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी गीत पर आपकी प्रतिक्रिया से मन हर्षित हुआ इस उत्साह वर्धन के लिए अतिशय आभार
आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपकी संवेदनीलता और संप्रेषण सामर्थ्य को हार्दिक बधाई व अनेकनेक शुभकामनाएँ
हार्दिक आभार आदरणीया कल्पना जी आपको गीत पसंद आया
बहुत सुंदर भावपूर्ण गीत! राजेश कुमारी जी हार्दिक बधाई...
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