इन नदियों की पीठ पर लहरें
जाने क्या-क्या लिखती है
मतपत्रों से
रिसते वादे
निठुर वंचना
हेठ इरादे
नारों की
नीली पगडंडी
और पुनर्मिलन
के वादे
या फिर
मत देने से पहले
पाई कालिख लिखती है
इन नदियों ...............
नित्य पथिक जो
बने पर्यटक
कहां फिरे
उस राह आजतक
और सुलगते
खेतों में जब
उगी फसल
कुछ हिंस्त्र दूर तक
संगीनों की वही कहानी
रोज नहीं क्या लिखती है ?
इन नदियों ...............
खटे मेघ
जी भर के फिर से
इन उजड़े
वीरानों में
देखें अबके
क्या मिलता है
लुटे-पिटे अरमानों में
ध्यान मग्न यह
धारा भी तो
कीर्तन सा कुछ लिखती है
इन नदियों ...............
(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
kuch na kah sakne ki istithi ......nih-shabdh ...sirf apki soch ki gahrai ko naman kar sakta hoo........
इस रचना पर निश्शब्द हूँ आदरणीय राजेश कुमार झा जी. . विलम्ब से आने के लिए क्षमा.. .
अपने ऊँचे भाव, सटीक शब्द चयन और प्रबुद्ध शिल्प से यह रचना मोह लेती है.
विसंगतियों का दर्द उभर कर आया है.
सादर
आप सबका हार्दिक आभार
वाकई सुंदर ...पढने में भी आनंद आया ..बंधी हुई रचना ..और ब्रिजेश जी से मैं भी इत्तेफाक रखता हूँ
अति सुंदर! बाकी तो वीनस जी ने कह ही दिया तो दोहराने से क्या लाभ! उसे मेरा लिखा भी मानें।
आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय राजेश जी//सुन्दर नवगीत।...बधाई
आप सबका हार्दिक आभार, स्नेह बनाए रखें, सादर
वाह भाई जी आनंदमाय हो गया ...
किसी सधी हुई रचना है ...
ऐसी उत्तम रचनाएँ कम ही देखने पढ़ने को मिलाती हैं ...
सादर
अतिसुन्दर प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
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