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चाह बस् इतना कि




चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे बागों व बहारों में

चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे नदी के किनारों पे


चाह नही मुझे कि..
छेड़ो तुम  बंसी की तान और 
झूमती आऊँ मैं 


चाह नही कि..
बैठो तुम कदम्ब की डाल और
नाच के रिझाऊँ मैं 

चाह नही कि..
थामूं तुम्हारा हाथ और
निहारूँ तुम्हारी आँखों में


चाह बस इतनी कि..
हे नाथ !! 
छू लूँ तुम्हारे ‘पद पंकज’ और
हाथ हो तुम्हारा मेरे सिर पर ||


मौलिक / अप्रकाशित 

मीना पाठक 

Views: 756

Comment

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Comment by Meena Pathak on September 28, 2013 at 1:16pm

आदरणीय पंकज जी सादर आभार स्वीकारें 

Comment by Pankaj Trivedi on August 7, 2013 at 2:55pm

मीना जी, अत्यंत भावपूर्ण समर्पण है ये.... जो दिल की गहराई से शब्द उभरे है, नत मस्तक हूँ...

Comment by Meena Pathak on August 6, 2013 at 5:34pm

आभार आदित्य जी 

Comment by Aditya Kumar on August 6, 2013 at 2:46pm

सुन्दर अभिव्यक्ति ! हार्दिक बधाई !

Comment by Meena Pathak on August 6, 2013 at 1:57pm

बहुत-बहुत धन्यवाद वसू  

Comment by Meena Pathak on August 6, 2013 at 1:56pm

आदरणीय अजय जी रचना सराहने के लिए हार्दिक आभार 

Comment by Vasundhara pandey on August 5, 2013 at 7:23pm

बेहद खुबसूरत चाह !!

Comment by Ajay Agyat on June 20, 2013 at 10:43pm

सुंदर अभिव्यक्ति 

Comment by Meena Pathak on June 20, 2013 at 4:58pm

आ. आशुतोष मिश्रा जी, सादर आभार 

Comment by Meena Pathak on June 20, 2013 at 4:57pm

हार्दिक आभार आ. बृजेश जी 

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