करीब सुबह के दस बजे थे। एक सभ्य कुलीन महिला पुलिस स्टेशन पहुंची। तेज कदमों से वह इंस्पेक्टर की टेबल के सामने जाकर खड़ी हो गई।
“मैं केस दर्ज कराने आई हूँ।‘’ महिला की आँखों में एक अजब-सा आक्रोश था।
“जी कहिए।“ इंस्पेक्टर ने टेबल पर पड़ी फाइलों से अपनी नजर हटाते हुए कहा।
“मेरा बलात्कार किया गया है।“
उसके इन शब्दों को सुनकर इंस्पेक्टर गंभीर हो गया। हाल-फिलहाल की घटनाओं को देखते हुए आला अधिकारियों की तरफ से सख्त निर्देश था कि ऐसे किसी भी मामले पर तुरंत कारवाई की जाए। इसलिए उसने मामले की गंभीरता को समझते हुए रपट लिखना शुरू किया।
“यह वहशियाना हरकत किसकी है?”
“मेरे पति की।“
“जी। यह नहीं हो सकता।“ उसके कलम रुक गए।
“नहीं हो सकता। मैं पुछती हूँ क्यों नहीं हो सकता?“
“मेरा मतलब.... आप अपने पति की बात कर रही है?“ इंस्पेक्टर की आँखों में आश्चर्य था।
“जी हाँ।“
“देखिए। यह आपके घर का मामला है। मुझे नहीं लगता कि इसमें पुलिस की आवश्यकता है। आप अपने घर जाइये और शांत होकर अपने पति से बात कीजिये।
“तो क्या आप यह केस दर्ज नहीं करेंगे?” महिला की आँखों का क्रोध उबल पड़ा।
“मैंने ऐसा नहीं कहा। मगर यह आपके और आपके पति के बीच का व्यक्तिगत मामला है। आप दोनों इसे बेहतर ढंग से सुलझा सकते हैं।“ इंस्पेक्टर ने महिला को समझाने की कोशिश की।
“मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहती। मैं न्याय चाहती हूँ। इस समाज से और इस समाज के न्यायकर्ताओं से।“
मामले की संवेदनशीलता को भाँपते हुए इंस्पेक्टर ने महिला का केस दर्ज कर लिया और साथ में उसे बगल की केबिन में बैठने का अनुरोध किया। महिला चली गई। मगर इंस्पेक्टर को अब तक यह बात समझ में आ गई थी कि यह मामला पुलिस का नहीं, बल्कि मानवाधिकार आयोग का है। इसलिए उसने तुरंत उन्हें फोन लगाया और उन्हें इस मामले की सूचना दी। साथ ही उसने अपने कांस्टेबलों को महिला के पति को पुलिस स्टेशन में ले आने की आज्ञा दी।
जल्दी ही मौके पर मानवाधिकार आयोग की एक टीम पहुँच गई। जिसमें दो भद्र पुरुष थे और एक महिला थी। तीनों उसी केबिन में पहुंचे, जहाँ महिला को ठहराया गया था।
“तो आपका आरोप है कि आपके पति ने आपके साथ बलात्कार किया?“
“जी हाँ। यह रिपोर्ट मैं दर्ज करवा चुकी हूँ।“
“मगर यह तो नैतिक है।“
“अच्छा...तो अब इस समाज में बलात्कार भी नैतिक हो गया है।“
“मेरा मतलब..... पति-पत्नी आपस में यौन संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। इसे बलात्कार का नाम नहीं दिया जाता।“
“तो फिर आपकी दृष्टि में बलात्कार क्या है?”
“ऐसा कोई भी शारीरिक संबंध जो महिला की इच्छा के विरुद्ध बनाया गया हो।“
“यही तो मैं भी कह रही हूँ। उसने मेरे साथ जबरदस्ती की है।“
“मगर वह आपके पति हैं।“
“पति है तो.... क्या मेरा मन और शरीर अब उसकी इच्छाओं का गुलाम मात्र है? जिसे जब चाहे वह मसल दे। जब चाहे अपनी हवश की प्यास बुझाए।“
“आप गलत समझ रही हैं। हमारे समाज में यह एक धर्म है। इसे गुलामी का नाम देना उचित नहीं।“
“गुलामी नहीं तो और क्या है? वह मेरी इच्छा-अनिच्छा की परवाह किए बिना मेरी आत्मा को नोचता रहे और मैं नैतिकता के बोझ तले उसकी यौन तृष्णाओं को पूरा करनेवाली खिलौना मात्र बनी रहूँ। यह मेरा शरीर है। यह मेरी आत्मा हैं और सर्वप्रथम इसपर मेरा अधिकार है। मैं यदि ऐसा कोई संबंध नहीं बनाना चाहती तो यह कैसा धर्म है जिसमें मानवीय मूल्यों का कोई औचित्य ही नहीं।“
“आपकी शादी के कितने दिन हुए हैं?” इस बार टीम की महिला सदस्य ने पूछा।
“दो साल।“
“तो क्या आप अपने पति से प्रेम नहीं करती?”
“मैं इस तरह के संबंध बनाने में असहज थी। इसलिए शादी के पहले दिन ही मैंने उसे सारी बातें बताई थी। उसने भी मेरा पूरा खयाल रखा। इन दो सालों में कभी कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की। मुझे अपने प्यार पर पूरा भरोसा था। मैं खुद को उसके साथ सबसे ज्यादा सुखी और सुरक्षित महसूस करती थी। मगर कल रात उसने अपना वहशी रूप दिखा दिया। उसने मेरे साथ जबरदस्ती की।“
“उसे जबरदस्ती नहीं कहते।“ भद्र पुरुष बोले।
“तो फिर आपलोगों की नजर में जबरन संबंध क्या है?” महिला ने तीखे स्वर में प्रश्न किया।
“मेरा तात्पर्य है कि पति-पत्नी का संबंध सात्विक होता है और समाज में इसे जबरन संबंध की संज्ञा नहीं दी जाती। यह तो प्रेम का आधार होता है।“
“आप कहना चाहते हैं कि यह यौन उत्पीड़न ही इस प्रेम का आधार होता है, जहाँ पुरुष जब चाहे स्त्री की संवेदनाओं की हत्या करता है। वाह रे प्रेम! वह रे समाज! घिन आती है मुझे इस समाज पर और आप जैसे मानव मूल्यों के रक्षकों पर।“ महिला की आँखों से अश्रुधारा का सैलाब जो अब तक धैर्य और साहस के आँचल में बंधा था, वह टूट पड़ा।
“प्लीज आप रोइए मत। आपका साहस काबिलेतारीफ है। आप मजबूती से अपनी बात रख रहीं है। हम आपको न्याय दिलाने की पूरी कोशिश करेंगे। ऐसी स्थिति में भी, आपका ऐसा सहयोग सराहनीय है।“
“आप क्या न्याय दिलाएँगे? कभी आप नैतिकता की बात करते है तो कभी इसे प्रेम का आधार बताते हैं। यदि आपमें दृढ़ इच्छाशक्ति होती तो, आप उसे गिरफ्तार करते। उसे सजा मिलती ताकि शहर में घूम रहे सभी आदम जानवरों के जेहन काँप उठते। फिर ऐसी हरकत करने की कोई जुर्रत भी नहीं करता।“
टीम ने महिला से पूछताछ बंद कर दिया। कुछ देर बाद उसके पति से पूछताछ शुरू हुई।
“आपकी पत्नी ने आपपर आरोप लगाया है। क्या आपको इसकी खबर है?”
“जी हाँ।“
“क्या आपको अपना अपराध स्वीकार है?”
“मैंने कोई अपराध नहीं किया।“
“मगर किसी भी स्त्री से उसकी इच्छा के विरुद्ध बनाया गया यौन संबंध बलात्कार और यह एक जघन्य अपराध है।“
“यह शादी मैंने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए तो नहीं की थी। इतने दिनों तक मैंने उसकी भावनाओं का आदर किया लेकिन हर पुरुष अपनी स्त्री से यह अपेक्षा करता है कि वह शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप में उसकी सहधर्मी बने। क्या आप अपनी पत्नी से यह अपेक्षा नहीं करते?”
“फिलहाल यह केस आपकी पत्नी ने दर्ज किया है। इसीलिए हम यहाँ आए हैं।“
“पुरुष तो आजीवन ही अपराध बोझ से दबा रहता है। मैं पूछता हूँ – इन बीते दिनों में यदि मैंने किसी और स्त्री के साथ संबंध बनाया होता तो भी मैं अपराधी घोषित किया जाता। तब आप कहते मैंने अपना पति धर्म नहीं निभाया। गनीमत तो यह है कि यदि वह, यह केस दर्ज करती कि मैंने उसके साथ इन बीते वर्षो में कोई संबंध नहीं बनाया तो भी आपकी दृष्टि में मैं ही अपराधी होता क्योंकि मैंने स्त्री की यौन इच्छाओं का हनन किया। हर पहलू में पुरुष ही दोषी होता है।“
“हम आपकी बातों से सहमत हैं मगर......”
“मगर क्या? न तो आप पूर्णतः सहमत दिखते हैं न ही असहमत।“
“क्या आप दोनों के बीच यह तनाव काफी दिनों से था? क्या आप एक- दूसरे को प्यार नहीं करते?”
“कौन-सा प्यार? मुझे समझ में नहीं आता। यहाँ तो न जाने कितने प्यार हैं – पिता से प्यार, माँ से प्यार, बहन से प्यार, बेटे से प्यार, आध्यात्मिक प्यार और भी न जाने कितने? अब वह मुझसे कौन-सा प्यार करती थी या करती है? यह मैं कभी समझ नहीं पाया।“
खैर पूछताछ समाप्त हुयी। अब बारी फैसले की थी। टीम ने आपस में विचार-विमर्श किया। टीम के एक पुरुष सदस्य बोले – यह मामला न तो बलात्कार का है, न ही पति-पत्नी के बीच विवादित सम्बन्धों का। यह स्त्री-पुरुष के विचारों के विरोधाभास का है, जो सदियों से, या यूं कहे सृष्टि के आदिकाल से चली आ रही है। यह केवल मानव तक सीमित नहीं। यह तो हर जीव में व्याप्त है। यह विरोधाभास प्राकृतिक है। मगर हमें फैसला तो लेना ही होगा। अन्य सदस्यों ने भी उनके विचारों में हामी भरी।
एक लंबी बहस के बाद फैसला लिया गया। फैसला संवैधानिक था, जो समाज की संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर लिया गया। मगर मैं वह फैसला सुना नहीं सकता। दोषी कौन था और कितना? यह फैसला मैं आप सभी पाठकों पर छोडता हूँ।
'मौलिक व अप्रकाशित'
Comment
शुक्रिया आप सभी का, जो आपने इस रचना को इतना स्नेह दिया। आप सभी का हार्दिक आभार।
बड़ी ही दुविधा है ...इधर गिरो तो कुआ ..उधर खाई है ..वही खड़े रहो तो दलदल है ...
क्या करे ..कहाँ जाएँ ..????
बहुत ही संवेदनशील मुद्दा..... चर्चा का विषय है ये
इतनी सुंदरता से लिखने के लिए हार्दिक बधाई
बेहद सम्बेदन शील मुद्दे पर एक शसक्त लेख ..सदर बधाई
इस अच्छी कथा के लिए आपको बधाई, कुन्दन जी।
सादर,
विजय निकोर
कथा ने वस्तुतः सोचने को बाध्य किया है. इस हेतु भाई कुन्दन सिंहजी को साधुवाद.
इससे पहले कुछ कहूँ, मैं कुछ प्रश्न साझा करना चाहता हूँ -- क्या हम अपने धर्म, जो कि कर्त्तव्य का नैतिक स्वरूप है, को समझते हैं ? अपने शारीरिक भाव से जन्मे दायित्वों के प्रति संवेदनशील और तदनुरूप उत्तरदायी हैं ?
शरीर अपने होने का मात्र एक स्थूल रूप है, और यह समस्त नहीं है. किन्तु लौकिक और गार्हस्त्य सम्बन्धों का यह प्रारम्भिक कारण अवश्य है. इस कारण के अनुसार कोई व्यक्ति --स्त्री या पुरुष-- चार तरह के रूपों या दायित्वों को जीता है :
क) पुत्र या पुत्री का
ख) व्यावसायिक और गुणी का, जिसमें विद्यार्थी से लेकर कर्मचारी, कारोबारी सभी आते हैं
ग) पति या पत्नी का
घ) पिता या माता का
उपरोक्त चारों रूपों के लिए अलग-अलग धर्म (दायित्व और कर्त्तव्य) नियत हैं जिसका निर्वहन सभी शरीरधारियों और गृहस्थों के लिए परमावश्यक है. हम भारतीय परंपराओं और सोच से जितना दूर होते जा रहे हैं या किये जा रहे हैं, हमारी व्यक्तिगत, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याएँ विकराल से विकरालतम होती जारही है. हर क्षेत्र में !
कथा की नायिका ने अपने शरीर की विशिष्टता और तदनुरूप तथाकथित अतिविशिष्ट मन से सम्बन्धित सभी तर्क दिये, ठीक है. किन्तु, क्या उसने अपने शरीर के कारण और उस शरीर पर निर्भर सम्बन्धों और दायित्वों के प्रति किंचित सोचा ? क्या नायिका के पति ने पत्नी के शरीर को संचालित करने वाले मन को महत्ता दी ?
आज समाज में परस्पर व्यवहार कुछ छिछली वैचारिकता पर निर्भर हो कर अनावश्यक समस्याओं का कारण बने हैं.
पुनः, एक अत्यंत संवेदनशील विन्दु पर सशक्त कलमगोई के लिए भाई कुन्दन सिंह जी को हार्दिक धन्यवाद. कथा अपने शिल्प के कारण आकर्षित भी करती है और बाँधे भी रखती है.
शुभम्
आपने बहुत ही संवेदनशील विषय पर कलम चलाई है। पति पत्नी के संबंध बहुत ही संवेदनशील होते हैं। जरा सी असावधानी रिश्तों को तहस नहस कर देती है।
आपके इस प्रयास पर आपको बहुत बधाई!
आप सभी के स्नेह का आभारी हूँ। कुंती जी! मैं आपकी बातों से अक्षरणशः सहमत हूँ। इसलिए मैंने दोनों पत्रों को बराबर और पूरा मौका दिया है। हाँ यह बात और है कि कम शब्दों में और कसी हुयी रचना लिखने के उद्देश्य ने मुझे विचारों को सीमित रूप में पेश करने को विवश किया। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह एक लंबी चर्चा की माँग करती है।
“पुरुष तो आजीवन ही अपराध बोझ से दबा रहता है। मैं पूछता हूँ – इन बीते दिनों में यदि मैंने किसी और स्त्री के साथ संबंध बनाया होता तो भी मैं अपराधी घोषित किया जाता। तब आप कहते मैंने अपना पति धर्म नहीं निभाया। गनीमत तो यह है कि यदि वह, यह केस दर्ज करती कि मैंने उसके साथ इन बीते वर्षो में कोई संबंध नहीं बनाया तो भी आपकी दृष्टि में मैं ही अपराधी होता क्योंकि मैंने स्त्री की यौन इच्छाओं का हनन किया। हर पहलू में पुरुष ही दोषी होता है।“.................
यहाँ स्त्री और पुरूष के मनःस्थिति और सोच की बात है . नारी प्रेम में कोमलता चाहती है खासकर जब शारीरिक सम्बंध की बात हो .....मगर बहुत से पुरूष वर्ग इस बात को समझना नहीं चाहते है .......इस कहानी में महिला बहुत दिनों से पीड़ित होने के कारण , घटित शारीरिक घटना के कारण आक्रोश में आ कर पति के खिलाफ़ रपट दर्ज कराने आ गयी .....चुँकि पति पत्नि का मामला बहुत संवेदनशील होता है इस कारण बहुत जल्दबाजी में निर्णय नहीं लिया जाता है. ........इस कहानी में दोनों पात्रों की कांसलींग जरूरी है......
कुंदन जी ,
आपने बहुत ही ज्वलंत सामाजिक पारिवारीक समस्या पर कलम चलायी है जो लम्बी चर्चा की माँग करती है.
सादर
कुंती.
बहुत ही रोचक रचना है ..
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