आज प्रलय हुंकार करूँ,,,,,,
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सच ! तू ही अब सब कुछ बतला,मैं क्यॊं ्न तुझसॆ प्यार करूँ ॥
तॆरी कटुता कॊ जग मॆं, कॊई शमन नहीं कर पाता,
तॆरी ग्रीवा मॆं बाहॆं डाल, कॊई भ्रमण नहीं कर पाता,
भाग रहा जग दूर दूर, क्यॊं तुझसॆ कुछ तॊ बतला,
दुविधा का विषय यही, है जग बदला या तू बदला,
दुत्कार रहा सारा जग तुझकॊ,मैं क्यॊं न जग सॆ ्तक़रार करूँ ॥१॥
सच, तू ही अब,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
फिर तॆरॆ हॊतॆ जग मॆं, कैसॆ असत्य का राज्य हुआ,
तॆरी कुटिया टूटी-फूटी,असत्य अचल साम्राज्य हुआ,
सब हुयॆ उपासक उस कॆ, तॆरा नाम नहीं लॆनॆ वाला,
आज झूठ कॆ बाजारॊं मॆं, तॆरा दाम नहीं दॆनॆ वाला,
यह जग तेरा अपमान करॆ जब, मैं क्यॊं न तेरा सत्कार करूँ ॥२॥
सच, तू ही अब,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
तॆरी परछाई सॆ भी दूर, भागतॆ दॆखॆ मैनॆं लॊग यहाँ,
तॆरॆ कारण लाखॊं भूँख, फांकतॆ दॆखॆ मैनॆं लॊग यहाँ,
असहाय पड़ा तू भूखा-प्यासा,दॆख रहा हूँ तॆरी काया,
महा-विलास की चौखट पर,नर्तन करती झूँठी माया,
संज्ञा-हीन ऋचायॆं तॆरी कैसॆ, बन मूक बधिर स्वीकार करूँ ॥३॥
सच,तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
हॆ प्रबल प्रतापी सत्य-दॆव, है अम्बर सॆ ऊँचा रूप तॆरा,
सप्त-सिन्धु सॆ भी गहरा, दिनकर सॆ तॆज स्वरूप तॆरा,
फिर क्यॊं अँधियारॆ मॆं अपना,अस्तित्व छुपायॆ जीता है,
मॆरी तरह हलाहल जग का, तू मौन व्रती बन पीता है,
झंकृत कर मन कॆ तार-तार, मैं सदा सत्य की हुंकार करूँ ॥४॥
सच,तू ही अब,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
कवि - "राज बुन्दॆली"
०१/०७/२०१३
पूर्णत: मौलिक व अप्रकाशित रचना
Comment
सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बढ़ायी
भाई ,,Harish Upreti "Karan" ,, जी,,,, वह रचना का शुद्ध रूप नही था,,,,,आदरणीय Saurabh Pandey, जी ने संकेत दिया,,,और उस अनुरूप कुछ बदलाव किया है,,,अगर उचित हो तो आशीर्वाद दीजिये,,,,अगर कहीं कमी हो तो सुझाव भी दीजियेगा,,,कृपा होगी,,,,,,
भाई ,,,वीनस केसरी, जी,,,, वह रचना का शुद्ध रूप नही था,,,,,आदरणीय Saurabh Pandey, जी ने संकेत दिया,,,और उस अनुरूप कुछ बदलाव किया है,,,अगर उचित हो तो आशीर्वाद दीजिये,,,,अगर कहीं कमी हो तो सुझाव भी दीजियेगा,,,कृपा होगी,,,,,,
आदरणीय,,, Saurabh Pandey, जी सादर प्रणाम,,,,,आपकॆ संकॆत को मैं समझ गया हूं और सिरोधार्य करते हुयॆ कुछ सुधार की कोशिश की है,,,,कृपया पुन: अवलोकन करने की यथोचित मार्ग-दर्शन देने की कृपा जरूर करियेगा,,,, सादर नमन आपको,,,,
भाव और ओज से ओतप्रोत इस कविता के लिए बधाई, आदरणीय राज साहब.
वैसे सही कहूँ तो मुझे इस गीत का मुखड़ा ही पसंद नहीं आया. सच से ये पूछना कि वो सच में सच-सच बताए कि उससे क्यों प्यार किया जाये ! यह प्रश्न सच की संज्ञा को ही नकारना हुआ है. सच तो है ही सच कहने के लिए. वो जो कहेगा सच ही कहेगा. फिर पंक्ति में ऐसे इम्फैसिस की आवश्यकता क्यों ? अलबत्ता मंच पर चमत्कार के लिहाज से या जम जाने के लिए यह पंक्ति बढिया हो सकती है.
आगे क्या कहूँ? संबवतः आपकी यह कविता अन्य साइटों पर अपलोड हुई तमाम वाहवाहियों से अबतक उभ-चुभ हो रही होगी. सो मुझसे भी बधाई स्वीकारें.
शुभम्
वाह वा
अति सुन्दर
हार्दिक बधाई स्वीकारें
वाह मैं आज प्रलय हुँकार भरूं........सुन्दर.......बधाई.......
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