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उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,
अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !

राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,

इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय !

भटक रहे विपदा पड़े, ढूंढ रहे हैं ठांव ,

ये अपने सरकार जी कब बांटेंगे छाँव ?

विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,
भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !

श्रेय कौन ले जाएगा मची हुई है होड़,

जोड़-तोड़ के खेल में गए कई रण-छोड़ !

_____________________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल 

(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by Sumit Naithani on July 3, 2013 at 2:20pm

राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,

इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय ...सुंदर 

Comment by Harish Upreti "Karan" on July 3, 2013 at 2:07pm

वाह बहुत सुन्दर सर......

Comment by वेदिका on July 3, 2013 at 1:55pm

उड़न खटोले पर चढ़े, आये प्रभू निर्दोष  :)))))))))))))

बढ़िया!!

बधाई लीजिये!   

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 3, 2013 at 1:47pm
आदरणीय...विश्वम्भर शुक्ल जी, ......" राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,

इधर-उधर घूमे फिरे औरगए फिर सोय !" सुंदर पंक्तियो के लिए हार्दिक शुभकामनाऐ
Comment by ram shiromani pathak on July 3, 2013 at 12:36pm

विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,
भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !बहुत सुन्दर

हार्दिक बधाई आदरणीय /सादर 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 3, 2013 at 11:12am

बहुत सुन्दर और सामयिक दोहे | हार्दिक बधाई आद. श्री विशाम्भर शुक्ल जी | सादर 

Comment by रविकर on July 3, 2013 at 10:45am

बहुत ही मार्मिक चित्रण-
आपकी प्रेरणा-
आभार आदरणीय-

डबल रोटियाँ खाय के, रहे बदलते सूट |
नौकर पहराते रहे, सर सत्ता को बूट |
सर सत्ता को बूट , लूट का मौका पाते |
बड़ी आपदा देख, ट्रकों में राहत लाते |
भरे उतारन वस्त्र, त्रस्त जन लखें चोटियाँ |
सड़ी-गली हर चीज, लाश सी डबल रोटियाँ ||

Comment by Shyam Narain Verma on July 3, 2013 at 10:35am

BAHOT KHOOB JEE...................

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