For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

अनसुलझे प्रश्न // डॉ० प्राची

प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन 

कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण 

अटल काल पर

पदचिन्हों की थाप छोड़ता 

बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...

अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर

देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा 

मृगमारीची सम

अनजाना - जाना पहचाना... 

खामोशी से, मन ही मन

अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को 

फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...

वो,

अलमस्त मदन 

अस्पृष्ट वदन 

गुनगुन गाये ऐसी सरगम 

हर सुप्त स्वप्न को दे थिरकन

क्षणभंगुर जग का हर बंधन ,

फिर भी,    क्यों ऐसे देवदूत से 

बंधन ये अन्अंत पुराना सा लगता है ?

क्यों एक अजनबी जाना पहचाना लगता है?

मौलिक एवं अप्रकाशित 

डॉ० प्राची 

Views: 1141

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by MAHIMA SHREE on July 4, 2013 at 11:06pm

अति सुंदर प्रस्तुति  आदरणीया प्राची जी .. बहुत -२ बधाई आपको


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 7:19pm

रचना के भाव शिल्प व शब्द संयोजन की सराहना के लिए हार्दिक आभार आ० विजय जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 7:18pm

आदरणीय सौरभ जी 

//संवेदनाओं की इन्हीं विस्तार पाती आवृतियों का स्थूल चरम दृश्य संज्ञाओं में से किसी विशिष्ट से भावमय एका हेतु सचेष्ट हो उठना है. .. यहीं प्रकृति किसी अन्तःकरण में अपने मूल गुण-धर्म के अनुरूप अन्यतम की स्वीकृति को जीती है.// 

चकित तो मैं हूँ... कोई ऍक्स-रे मशीन या अल्ट्रासाउंड मशीन ज़रूर फिट है आपके अंदर के पाठक में जो अक्षरशः भाव भाव को यूं प्रस्तुत कर दिया जैसा महसूस मैंने इस रचना को लिखा था. :)) सादर.

रचना की अंतर्गेयता, भाव प्रवाह , वैचारिकता विन्यास आपको शिल्प के तौर पर संतुष्ट कर सके यह रचना के लिए सम्मान की बात है... आप द्वारा सूक्ष्मतर तक उतर कर रचना को पढ़ने के लिए व विस्तार को सांझा करती टिप्पणी के लिए मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 7:05pm

आदरणीय कुंती जी

अनसुलझे प्रश्नों के सैलाब नें ही इस रचना को जन्म दिया है, क्योंकि अदृश्य पर यकीन करने के लिए भी यह मन आदतन दृश्य साक्ष्य चाहता है. आँखें जो देखती हैं और मन(कर्ण नहीं) जो सुनता है... दोनों का साम्य कैसे हो यह सच में गुह्य रहस्य ही है.

आपने इस रचना के रहस्य को टटोला और पसंद किया इस हेतु आपकी आभारी हूँ आदरणीया.

सादर.

Comment by vijay nikore on July 4, 2013 at 6:46pm

आदरणीया प्राची जी:

 

आपकी यह रचना प्रारंभ से अंत तक दार्शनिक सिद्धांत से भरपूर है।

 

उत्कृष्ट भाव, बिम्ब, और शब्द संयोजन से सजी यह रचना केवल सराहनीय नहीं, आराधनीय है।

 

सादर,

विजय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 4, 2013 at 6:20pm

कम ही होता है, गुह्य भाव चित्त को सहज ही स्पर्श कर उसे झंकृत कर दें, यदि हाँ, तो उस झंकार से उद्वेलन नहीं संवेदनाओं की मद्धिम तरंगें दीर्घ विस्तार पाती जाती हैं. संवेदनाओं की इन्हीं विस्तार पाती आवृतियों का स्थूल चरम दृश्य संज्ञाओं में से किसी विशिष्ट से भावमय एका हेतु सचेष्ट हो उठना है. 

यहीं प्रकृति किसी अन्तःकरण में अपने मूल गुण-धर्म के अनुरूप अन्यतम की स्वीकृति को जीती है. जो ’न जाने हुए जाना-पहचाना दिखता है’ के रूप में परिलक्षित होता है.

यहीं, शब्द अपने अर्थ खोने लगते हैं. मौन अक्षर हुआ वाचाल हो उठता है. काल का प्रवाह लयात्मक ’दीखने’ लगता है. प्रकृति की कलाएँ अपने दोनों विस्तारों के साथ स्व-देह में प्राण पाती प्रतीत होती है.  आवेशित हुए ऊर्जस्वी तंतुओं को स्पर्श करना संभव हो पाता है. 

इस सनातन भावदशा को आपने जिस ऊँचाई से महसूसा है, वह एकबारग़ी चकित करता है, डॉ. प्राची. परन्तु, अपने आप के अन्वेषण को आतुर मनस इन विन्दुओं को जी सकता है. यह आश्वस्ति भी होती है.

प्रस्तुत दशा के लिए बधाइयाँ और साझा करने केलिए नमन.

रचना की अंतर्गेयता प्रभावित करती है. यदि कहूँ कि इस कारण भाव संप्रेषण वैचारिकता को सदिश कर रहा है तो अन्यथा न होगा.

सादर

Comment by coontee mukerji on July 4, 2013 at 5:52pm

प्राची जी, आपकी गुरु गाम्भीर्य रचना मन में कितने सारे प्रश्नों का सैलाब ला रहा है........बहुत सारे भावों का समावेश  है.

प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन 

कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण 

अटल काल पर

पदचिन्हों की थाप छोड़ता 

बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...

अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर

देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा 

मृगमारीची सम

अनजाना - जाना पहचाना... 

खामोशी से, मन ही मन

अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को 

फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता..........आँखें कुछ और देखा रहा

वो,

अलमस्त मदन 

अस्पृष्ट वदन 

गुनगुन गाये ऐसी सरगम 

हर सुप्त स्वप्न को दे थिरकन

क्षणभंगुर जग का हर बंधन ,

फिर भी,    क्यों ऐसे देवदूत से 

बंधन ये अन्अंत पुराना सा लगता है ?

क्यों एक अजनबी जाना पहचाना लगता है?...........मन कुछ और ही सुन रहा है.

इस रचना में रहस्यवाद की झलक है.जिसे पढ़ने से मन की जिज्ञासा को संतुष्टि मिलती है.अति सुंदर. आपकी प्रतिभा को मेरा नमन.

सादर

कुंती.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 5:08pm

आदरणीय रविकर जी 

रचना को आपका आशीर्वाद स्वरुप अनुमोदन मिला, मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 5:07pm

प्रिय राम शिरोमणि जी 

रचना के शब्द संयोजन को सराहने के लिए आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 5:06pm

आदरणीय लक्ष्मण जी 

प्रस्तुत कविता के अनसुलझे प्रश्न को आपने अपने कहन द्वरा झट सुलझाने का प्रयास किया 

//दरअसल  जब मन से मन के तार मिले तो, अनजाना भी जाना पह्चाना लगता है |// 

धन्यवाद.

सादर.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service