प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना...
खामोशी से, मन ही मन
अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को
फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी सरगम
हर सुप्त स्वप्न को दे थिरकन
क्षणभंगुर जग का हर बंधन ,
फिर भी, क्यों ऐसे देवदूत से
बंधन ये अन्अंत पुराना सा लगता है ?
क्यों एक अजनबी जाना पहचाना लगता है?
मौलिक एवं अप्रकाशित
डॉ० प्राची
Comment
अति सुंदर प्रस्तुति आदरणीया प्राची जी .. बहुत -२ बधाई आपको
रचना के भाव शिल्प व शब्द संयोजन की सराहना के लिए हार्दिक आभार आ० विजय जी
आदरणीय सौरभ जी
//संवेदनाओं की इन्हीं विस्तार पाती आवृतियों का स्थूल चरम दृश्य संज्ञाओं में से किसी विशिष्ट से भावमय एका हेतु सचेष्ट हो उठना है. .. यहीं प्रकृति किसी अन्तःकरण में अपने मूल गुण-धर्म के अनुरूप अन्यतम की स्वीकृति को जीती है.//
चकित तो मैं हूँ... कोई ऍक्स-रे मशीन या अल्ट्रासाउंड मशीन ज़रूर फिट है आपके अंदर के पाठक में जो अक्षरशः भाव भाव को यूं प्रस्तुत कर दिया जैसा महसूस मैंने इस रचना को लिखा था. :)) सादर.
रचना की अंतर्गेयता, भाव प्रवाह , वैचारिकता विन्यास आपको शिल्प के तौर पर संतुष्ट कर सके यह रचना के लिए सम्मान की बात है... आप द्वारा सूक्ष्मतर तक उतर कर रचना को पढ़ने के लिए व विस्तार को सांझा करती टिप्पणी के लिए मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ
सादर.
आदरणीय कुंती जी
अनसुलझे प्रश्नों के सैलाब नें ही इस रचना को जन्म दिया है, क्योंकि अदृश्य पर यकीन करने के लिए भी यह मन आदतन दृश्य साक्ष्य चाहता है. आँखें जो देखती हैं और मन(कर्ण नहीं) जो सुनता है... दोनों का साम्य कैसे हो यह सच में गुह्य रहस्य ही है.
आपने इस रचना के रहस्य को टटोला और पसंद किया इस हेतु आपकी आभारी हूँ आदरणीया.
सादर.
आदरणीया प्राची जी:
आपकी यह रचना प्रारंभ से अंत तक दार्शनिक सिद्धांत से भरपूर है।
उत्कृष्ट भाव, बिम्ब, और शब्द संयोजन से सजी यह रचना केवल सराहनीय नहीं, आराधनीय है।
सादर,
विजय
कम ही होता है, गुह्य भाव चित्त को सहज ही स्पर्श कर उसे झंकृत कर दें, यदि हाँ, तो उस झंकार से उद्वेलन नहीं संवेदनाओं की मद्धिम तरंगें दीर्घ विस्तार पाती जाती हैं. संवेदनाओं की इन्हीं विस्तार पाती आवृतियों का स्थूल चरम दृश्य संज्ञाओं में से किसी विशिष्ट से भावमय एका हेतु सचेष्ट हो उठना है.
यहीं प्रकृति किसी अन्तःकरण में अपने मूल गुण-धर्म के अनुरूप अन्यतम की स्वीकृति को जीती है. जो ’न जाने हुए जाना-पहचाना दिखता है’ के रूप में परिलक्षित होता है.
यहीं, शब्द अपने अर्थ खोने लगते हैं. मौन अक्षर हुआ वाचाल हो उठता है. काल का प्रवाह लयात्मक ’दीखने’ लगता है. प्रकृति की कलाएँ अपने दोनों विस्तारों के साथ स्व-देह में प्राण पाती प्रतीत होती है. आवेशित हुए ऊर्जस्वी तंतुओं को स्पर्श करना संभव हो पाता है.
इस सनातन भावदशा को आपने जिस ऊँचाई से महसूसा है, वह एकबारग़ी चकित करता है, डॉ. प्राची. परन्तु, अपने आप के अन्वेषण को आतुर मनस इन विन्दुओं को जी सकता है. यह आश्वस्ति भी होती है.
प्रस्तुत दशा के लिए बधाइयाँ और साझा करने केलिए नमन.
रचना की अंतर्गेयता प्रभावित करती है. यदि कहूँ कि इस कारण भाव संप्रेषण वैचारिकता को सदिश कर रहा है तो अन्यथा न होगा.
सादर
प्राची जी, आपकी गुरु गाम्भीर्य रचना मन में कितने सारे प्रश्नों का सैलाब ला रहा है........बहुत सारे भावों का समावेश है.
प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना...
खामोशी से, मन ही मन
अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को
फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता..........आँखें कुछ और देखा रहा
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी सरगम
हर सुप्त स्वप्न को दे थिरकन
क्षणभंगुर जग का हर बंधन ,
फिर भी, क्यों ऐसे देवदूत से
बंधन ये अन्अंत पुराना सा लगता है ?
क्यों एक अजनबी जाना पहचाना लगता है?...........मन कुछ और ही सुन रहा है.
इस रचना में रहस्यवाद की झलक है.जिसे पढ़ने से मन की जिज्ञासा को संतुष्टि मिलती है.अति सुंदर. आपकी प्रतिभा को मेरा नमन.
सादर
कुंती.
आदरणीय रविकर जी
रचना को आपका आशीर्वाद स्वरुप अनुमोदन मिला, मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ
सादर.
प्रिय राम शिरोमणि जी
रचना के शब्द संयोजन को सराहने के लिए आभार
आदरणीय लक्ष्मण जी
प्रस्तुत कविता के अनसुलझे प्रश्न को आपने अपने कहन द्वरा झट सुलझाने का प्रयास किया
//दरअसल जब मन से मन के तार मिले तो, अनजाना भी जाना पह्चाना लगता है |//
धन्यवाद.
सादर.
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