यूं ही बचपन गया शरारत में
औ' जवानी गयी मुहब्बत में
और जो वक़्त जिंदगी के बचे
वो भी गुज़रे फ़क़त तिजारत में
बादे मुश्किल मिले जो पल वो भी
हो गए रायगाँ शिकायत में
मुफ्लिसों को भला बुरा कहना
है शुमार आज सबकी आदत में
फूल बेलपत्र के अलावा शिव
जान मांगे है अब ज़ियारत में
फ़ासला तू औ' मैं का जब न मिटे
तो मज़ा ख़ाक है मुहब्बत में
गाँव से वो कपास की कतरन
जाके चुनता है शह्रे सूरत में
वो ही होगा वजीर कल, जो कि
आज है राहजन की शोहबत में
.
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
सुशील जी बहुत दिन के बाद किसी ग़ज़ल में कतअ पढ़ रहा हूँ अब तो इसका प्रचलन ही नहीं रहा ....
आग के अशआर दमदार रहे ..
इस शेर के उला पर बहर के हवाले से नज़रे सानी फारमा लीजिए ...
फूल बेलपत्र के अलावा शिव
जान मांगे है अब ज़ियारत में
Thanks Dr sab sahi rukn diya hai aapne. aap to aruz ke bhi dr. hai.
Shukriya Geetika jee, aapki komal bhawnaaoo ka me tahe dil se qadr karta hoo.
Jitendra bhai ko dhanyawad meri hosala afjai ke liye.
ये कहूँगी की कुछ भी कह लीजिये किन्तु ये मत कहिये //यूं ही बचपन गया शरारत में // ,, शरारत केवल यूँ ही जाने की चीज तो नही,, इन शरारतो ने ही तो अब तक बचपन की यादे ताज़ा रखी है, जो हमे यदाकदा हंसा देती है,, वरना समझदारी में तो रोना ही रोना है!
बहुत ही अच्छा रचना कर्म ,, रचना पर हार्दिक बधाईया!
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