प्रकृति की
नैसर्गिक चित्रकारी पर
मानव ने खींच दी है
विनाशकारी लकीरे
सूखने लगे है
जलप्रताप, नदियाँ
फिर
एक सा जलजला आया
समुद्र की गहराईयों में
और प्रलय का नाग
निगलने लगा
मानवनिर्मित कृतियों को,
धीरे धीरे
चित्त्कार उठी धरती
फटने लगे बादल
बदल गए मौसम
बिगड़ गया संतुलन
हम
किसे दोष दे ?
प्रकृति को ?
या मानव को ?
जिसने अपनी
महत्वकांशाओ तले
प्राकृतिक सम्पदा का
विनाश किया,
अंततः
रौद्र रूप धारण करके
प्रकृति ने दिया है
अपना जबाब ,
मानव की
कालगुजारी का,
लोलुपता का,
विध्वंसता का,
जिसका
नशा मानव से
उतरता ही नहीं .
और
प्रकृति उस नशे को
ग्रहण करती नहीं .
--शशि पुरवार
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
prachi ji tahe dil se abhaar aapne rachna ko sahara , aapka kathan saty hai , mujhe aur bhi jodna chahiye tha par kalam ne saath chod diya ,mai jyadatar rachnaye sidhe likhkar post karti hoon pahale se taiyari kam hi rahati hai . dhyan rakhoongi aisa punah n ho .
pasand karne ke liye sabhi mitro ka abhaar mathur ji ram ji sumit ji
आदरणीया प्राची जी से सहमत हूं, इस रचना में सपाट बयानी अधिक है कविता छूती तो है पर ऊपर से, वह गहरे नहीं उतर पाती क्योंकि मन उसे उत्प्लावित कर देता है, सादर
प्रकृति अपना काम करती है, प्रकृति समय पर मनुज को जवाब भी देती है, सुन्दर तरीके के इसको
रचना के माध्यम से समझाने में सफल रही है आप आद शाशी पुरवर जी, हार्दिक बहाई
बहुत अच्छी रचना !!!
सुन्दर रचना आदरणीया शशि जी///
प्रकृति के प्रति तथ्यात्मक चिंतन को सांझा करती प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आ० शशि पुरवार जी
वैसे इसे अभी और साधना था ... अतुकांत रचना जितनी कथ्यसान्द्र और प्रवाहमय हो उतनी ही छाप छोड़नें में सक्षम होती है, अन्यथा गद्य सम सपाट प्रतीत होने का डर रहता है
sunder prstuti
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