संबंध
बेमतलब , बेमानी ...
भाई चारे की तरह
ढोते हैं रिश्तों की लाश को
आफ्नो को
अपने ही देते कंधे
चलते जाते हैं
नाकों मे फैलती
अपनों की सड़ांध
आसान नहीं है चलना
और फिर
जला आते है अपनों की लाश को
अपने ही , मगर
ढ़ोना तो पड़ता है
छाँव की तलाश मे
रिश्तों की आस मे
संबंध
बेमानी , बेमतलब
भाई चारे की तरह ...
"मालिक व अप्रकाशित"
Comment
आभार आदरणीय अरुण शर्मा अनंत जी, सौरभ पांडे जी, बृजेश जी, केवल प्रसाद जी, विजय निकोरे जी, लक्ष्मण जी, राम शिरमोनि पाठक जी, सुमित जी, माथुर जी एवं आदरनिया प्राची जी .... आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद ... उत्साहवर्धन के लिए....
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति आदरणीय बधाई स्वीकारें.
सम्बन्ध कोई हो, कभी रक्त की अवधारणा को नहीं जीते. जबकि इस आयाम को एक समय से प्रतिस्थापित किये जाने का प्रयास चलता रहा है. कोई सम्बन्ध चाहे रक्त-सम्बन्ध क्यों न हो, सदा ही पारस्परिक मतैक्य एवं समान या सम-आवृति की वैचारिकता से संपुष्ट होता है.
आपके विचारों को मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ. आमोद भाई.
रचना हेतु शुभकामनाएँ.
आपके इस प्रयास पर आपको बधाई!
आ0 आमोद भाई जी, सम्बंधों का स्नेह और अपनों का दर्द-.. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। बधाई स्वीकारें। सादर,
यथार्थ की सुन्दर अभिव्यक्ति, आदरणीय।
विजय निकोर
संबंध बेमतलब , बेमानी ...
भाई चारे की तरह
ढोते हैं रिश्तों की लाश को
आफ्नो को अपने ही देते कंधे
चलते जाते हैं
नाकों मे फैलती अपनों की सड़ांध
आसान नहीं है चलना ----------सही भाव अभिव्यक्त हुए है श्री आमोद जी, बधाई |पर यह भी उतना ही सत्य है कि----
भाई चारा होता है -
खुनी रिश्ता
यही रिश्ता काम आता है
संकट में, क्योकि
तब खून बोलता है,
और यही कंधा भी ढोता है
आसान भी नहीं है
इसे यूँ ही छिटकना |---लक्ष्मण
बहुत सुन्दर आदरणीय //सादर
सुन्दर... बधाई स्वीकारें...
संवेदनहीनता अनमनस्कता किस तरह जीते जागते श्वाँस लेते रिश्तों को ज़िंदा लाश बना देती है और उन्हें फिर सहेजना ढोने सा ही होने लगे , रिश्तों में आते इन कटु भावों को सहजता से अभिव्यक्त किया है आ० आमोद श्रीवास्तव जी
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