तुम्हारा प्रेम -
खुद तुम्हारा ही
गढ़ा फलसफा
सुविधाजीवी सोच से
तौला हुआ
नुक्सान नफ़ा
जब तुम कहते हो -
प्रेम है तुम्हें
बुनते हो
मोहक भ्रमजाल
अंतस- द्वीपों में
ज्यों भित्तियां
रचते प्रवाल
१- मित्रों की मंडली में
वह अनर्गल सी हंसी
देह के ही व्याकरण में
उलझकर रहती फंसी
हो न सकती
उसमें मुखरित
सहचरी या प्रेयसी
जब तुम कहते हो-
प्रेम है तुम्हें
झूठ होता है
वह महिमामंडन
अपने ही
मानदंडों का
करता जो खंडन
२- आत्मा में तुम्हारी
गूंजा नहीं कोई शंखनाद
धडकनें संवेदना की
आस्था का आह्लाद
तमस में लिपटा तुम्हारा
वह कुटिल, भ्रामक प्रमाद...!
जब तुम कहते हो-
प्रेम है तुम्हें
तो करते हो कोई पाखंड
भुलावे में डालने वाले
कपट, छल छंद
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत धन्यवाद विजय मिश्र जी.
अनेकानेक धन्यवाद आदरणीया डॉ. प्राची जी.
आदरणीया विनीता शुक्ला जी
आपकी यह अभिव्यक्ति बहुत पसंद आई,
अहम्, स्व से बड़ा जब किसी व्यक्ति को कुछ न लगे... तो उसके द्वारा प्रेम का आवरण भी पाखण्ड ही होता है..पाखण्ड ही लगता है.
हर बंद प्रेम भाव की सत्यता की कसौटी पर मुखौटों को उचेटता , गहन चिंतन को शब्द देता सा प्रतीत हुआ
हार्दिक शुभकामनाएँ
सराहना हेतु कोटिशः आभार, आदरणीय सौरभ जी.
दैहिक अनुभूतियों के परे शाश्वत प्रेम की महत्ता बताती पंक्तियाँ सहचर से संवाद बनाने का माध्यम ढूँढती हुई कश्मकश को जीती दीख रही हैं.
इस मनोदशा के प्रति सादर सहानुभूति. और रचना हेतु बधाइयाँ.
अच्छा प्रयास हुआ है, आदरणीया विनीता जी.
शुभ-शुभ
बहुत बहुत धन्यवाद अभिनव अरुण जी.
विमर्श का गंभीर आग्रह करती रचना … गहरे तक असर करती है बहुत बहुत साधुवाद इस प्रस्तुति पर आदरणीया !!
हार्दिक आभार अन्नपूर्णा जी.
कोटिशः धन्यवाद श्याम नारायण जी.
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