पोखर छल छल जल भरे ,धुले धुले मैदान|
काई ने पहना दिए , हरित नवल परिधान||
धरती अंतर में छुपा,दादुर जीव विचित्र|
नव चौमासे ने कहा ,बाहर आजा मित्र||
मुक्तक फूटें मेघ से ,टपर टपर टपकाय |
प्यासा चातक चुन रहा,चरुवा भरता जाय||
नित नवल प्राकृतिक सृजन ,मिले जो रश्मि पात|
रेशा रेशा झूमता , हँसते निशा प्रभात ||
चटक चम्पई चांदनी,उजली उजली भोर|
कुसुमागम की थाप पर,नाचे मन का मोर||
जड़ चेतन सब ने किया ,सावन का सम्मान|
देखो जीवन पा रहे , खेतों में अब धान||
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(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
चटक चम्पई चांदनी,उजली उजली भोर|
कुसुमागम की थाप पर,नाचे मन का मोर||
इस दोहे का संदर्भ ले अन्य के प्रति भी अतिशय बधाइयाँ कह रहा हूँ. सादर
बहुत ही सुंदर रचना हुई है आदरेया, हार्दिक बधाई
वाह आदरणीया वाह बहुत ही सुन्दर मनोहारी दोहावली प्रस्तुत की है आपने पढ़कर मन झूम उठा ह्रदय से बधाई स्वीकारें.
जीतेन्द्र जी प्रस्तुति पर आपकी प्रतिक्रिया उत्साहित कर रही है हार्दिक आभार
"चटक चम्पई चांदनी,उजली उजली भोर|
कुसुमागम की थाप पर,नाचे मन का मोर||"..........आदरणीय राजेश कुमारी जी, बहुत ही खुबसूरत शब्दों से वर्षा ऋतू का चित्रण, बहुत बहुत बधाई...
प्रिय रामशिरोमणि पाठक जी आपको दोहावली पसंद आई हृदय से आभारी हूँ |
वाह आदरणीया बहुत ही सुन्दर दोहे है //हार्दिक बधाई आपको
प्रिय सरिता जी आपको दोहावली पसंद आई दिल से आभारी हूँ |
वाह दी लाजवाब दोहावली प्रकृति चित्रण की ,बधाई स्वीकारें
आदरणीया कल्पना रमानी जी आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया पाकर प्रस्तुति धन्य हुई सादर
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