श्याम खुद को बहुत खुशकिस्मत मान रहा था | बात थी भी ऐसी, वो भयानक रात और दो दिन तक मची तबाही का मंजर एक पल के लिए भी तो उसकी आँखों से नहीं हटा था | जहाँ-तहां लाशे बिछी हुई थी और हर तरफ चीख पुकार |
श्याम अपनी पत्नी सुनीता चार बच्चो का पेट पालने के लिए एक खच्चर के सहारे खच्चर में माल ढोने का काम करता है और हर साल यात्रा सीजन में केदारनाथ परिवार सहित केदार बाबा की शरण में पहुँच जाता था | जहाँ पत्नी फूल प्रसाद बेचा करती है, और बच्चे होटल में बर्तन धोने का का काम और वो खुद खच्चर से यात्रियों को लाने ले जाने का काम करता था | केदार बाबा की कृपा से एक ही सीजन में अच्छी कमाई हो जाती थी , पर इस बार प्रकृति किसी और ही रूप में थी |
यात्रा शुरू होते ही कुछ लोगो के बहकावे में आ के सभी खच्चर वाले हड़ताल में चले गए थे | पुरे साल जिस दिन का इन्तजार रहता है, उस में भी यूँ हाथ में हाथ रखे हड़ताल में बैठ जाना श्याम को नागवार गुजर रहा था | पर साथियों से अलग जा के कुछ कर पाने की वो हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा था | पत्नी के बोलने पे जिस होटल में बच्चे बर्तन धोने का काम करते थे वो भी वहीं लग गया |
पन्द्रह जून से ही मौसम बिगड़ने लगा था | श्याम मौसम का रुख देख के उपर वाले से सब सही होने की प्रार्थना कर रहा था | पर कहते है न भविष्य में क्या छुपा ये किसी को नहीं पता | दुसरे दिन बारिश ने जोर पकड लिया पूरी घाटी काले बदलो से घिरी हुई थी बादलो की गर्जना दिल दहला रही थी | मंदाकनी भी पुरे उफान पर थी और जल स्तर बढ़ता ही जा रहा था |
श्याम को कुछ अंदेशा हो रहा था, उसने कुछ साथियों को उपरी पहाड़ी की तरफ जाते हुए देखा तो बिना देर किये वो भी अपने परिवार सहित सुरक्षित स्थान के लिए निकल गया | केदार बाबा से प्रर्थना करते हुए वो सुरक्षित स्थान में तो पहुँच गए थे | पर बारिश का विकराल रूप देख के सहमे हुए थे तभी एक गर्जना हुई | कुछ अनोहोनी न हो ये ही विचार दिल में था | दो दिन जैसे तैसे निकलने के बाद वापसी में जो मंजर दिखे वो अपनी तबाही की दास्ताँ सुना रहे थे |
रास्ते टूट चुके थे हर कोइ बदहवास था | स्थानीय गाँव वालो की मदद से वो किसी तरह से पैदल ही रास्ता तय कर रहे थे | पर भूख से तडपते बच्चो को समझा सके वो शब्द भी अब उसकी पत्नी के पास खत्म हो चुके थे | बेबसी थी भूख से तडपते बच्चो का रोना नहीं सुना जा रहा था | तभी हेलीकाप्टर की आवाज ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा ,... हेलीकाप्टर से खाद्य सामग्री गिराई जा रही थी | सभी लोग उसी दिशा को भागे श्याम भी उसी तरफ दौड़ पडा पर होनी को कुछ और ही मंजूर था | एक बार तो मौत से बच आये थे पर भागते हुए श्याम का पैर लडखडाया और वो गहरी मंदाकनी में समाता चला गया ......
श्याम की पत्नी कुछ समझ पाती तब तक सब कुछ खत्म हो चूका था एक चीख के साथ ही सुनीता बेहोश हो गयी | बच्चे भूख से तडप रहे थे, पर इस अचानक आई विपदा में वो ये भी भूल गए | किसने क्या मदद की किस तरह से रेस्क्यू वालो ने उनको सुरक्षित स्थान में छोड़ गए | धुंधली आँखों से वो कुछ भी नहीं देख पाए और न ही समझ पाए जो तबाही के निशान वो देखते हुए आ रहे थे, उसी ने उसके परिवार के लिए एक तबाही लिख दी थी |
जिन पहाड़ो की गोद में खेल के वो बढ़ रहे थे, आज उसी को देख के खौफ हो रहा था.... जिन रास्तो से परिचय पिता ने उंगली थामे कराया था आज वो भी अजनबी से लग रही थी ... सुनीता को जब होश आया तो सब कुछ लुट चूका था, थोडा बहुत राशन था वो भी खत्म हो गया था सुनीता खुद को संभालती या बच्चो को ..... रह रह के आँखों में आंसू आ जाते भविष्य को सोचते हुए ... एक वक़्त का खाना भी नहीं मिल रहा था .... गाँव के सभी लोगो के साथ कोई न कोई कहानी थी | सभी ने अपनों को खोया था .....जिनको जाना होता है वो चले जाते है, मगर जिन्दा रहने के लिए, बच्चो के लिए कुछ तो करना था पर इस दैवीय आपदा के आगे सब ही बेबस से राहत सामग्री की बाट जोहते रहते रोज का सूरज एक उम्मीद लिए आता और रात निराशा के निशान दिए चली आती थी ... कुछ लोगो ने अपने बच्चो को दूर दूसरे गाँव स्कूल भेजना शुरू किया था, पढने को नहीं सिर्फ इस लिए क्यूँ की सरकार वहां बच्चो को स्कूल में भोजन देती है | एक वक़्त का खाना तो नसीब होगा सोच के आज सुनीता भी चल दी उस खतरनाक पर जिंदगी के रास्तो में जहाँ से बच्चो का भविष्य था |
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आदरणीय दिव्या जी, आपकी कहानी का विषय मार्मिक है, प्रस्तुति भी बढ़िया हुई है आपकी, भाषा में थोड़ी कसावट यदि और होती तो चार चाँद लग जाते. कुछ टाइपिंग की अशुद्धियाँ भी हैं जो मामूली हैं. वैसे मुझे पसंद आई आपकी ये कहानी.
दिव्या जी आपने उत्तराखंड आपदा पर कथा लिख कर उनकी आवाज़ को अपनी कलम दे दी है
अच्छी प्रस्तुति है !
बेहत दर्दनाक और मार्मिक सत्य के करीब दिखती कहानी ... बधाई दिव्या बहन!
आदरनीया दिव्या जी,
आदरणीय शुभ्रांशु जी,
मैं उत्तराखंड से हूँ कल ही दैनिक समाचार पत्र में पढ़ा था ये दर्द भरी दास्ताँ जिसमे अपने बच्चो को कुछ गाँव के लोग इस लिए भेज रहे है क्यूँ की मिड डे मिल से उनके बच्चो की एक टाइम की भूख मिट सके ..... खुशकिस्मत वो तब तक ही सोच रहा था जब तक जिन्दा था | शायद मेरे लिखने में कमी है मैं जिस दर्द को महसूस कर सकी वो शब्दों के जरिये उतार न सकी |
आप का तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय किशन कुमार जी,
आप का तहे दिल से शुक्रिया
आ. दिव्या जी, कहानी की शुरुआत जिस श्याम से शुरु होती है वो तो आधे रास्ते में ही दम तोड़ देता है फ़िर वो किस तरह् से खुशकिस्मत है ये स्पष्ट नहीं हो पा रहा है...कई बातों को समेटने की कोशिश की गयी लेकिन एक हड़बडा़हट सी थी कहानी को समाप्त करने में. दुःख और व्यथा का चित्रण और सटीक हो सकता था.
एक अच्छा प्रयास है. किसी एक बिन्दु को ले कर एक लघु कथा बन सकती थी.......
सादर..
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