सावधान रहो
सतर्क रहो
किस किस से
कब कब
कहाँ कहाँ
हमेशा रहो
हरदम रहो
जागते हुए भी
सोते हुए भी
क्या कहा ?
ख्वाब देखती हो
किसने कहा था
बंद करो
कल्पना की कूची से
आसमान में रंग भरना
उड़ना चाहती हो ?
क़तर डालो पंखो को
अभी के अभी
ओफ्फ तुम मुस्कुराती हो
अरे तुम तो खिलखिलाती भी हो
बंद करो आँखों में
काजल भरना और
हिरणी सी कुलाचे भर
भवरों संग गुंजन करना
यही तो दोष तुम्हारा है
शोक गीत गाओ
भूल गयी
तुम स्त्री हो !
किसी भी उम्र की हो
क्या फर्क पड़ता है
आदम की भूख
उम्र नहीं देखती
ना ही देखती है
देश धर्म औ जात
बस सूंघती है
मादा गंध
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अनंत जी .. आपका ह्रदय तल से आभार .. आपने अपना बहुमूल्य समय दिया .सहयोग बनाये रखे
आदरणीय महिमा जी, बहुत दिनों के बाद ऐसी कविता पढने को मिली जिसमे नारी जीवन का कटु सत्य स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है!
कविता के लिए आपको बधाई दूं, या नारी जीवन की व्यथा पर खेद व्यक्त करू, समझ नहीं पा रहा, कटु सत्य है आपकी कविता में
आदरणीय अभिनव जी .. आपका हार्दिक आभार .. आपके प्रोत्साहन भरे शब्दों ने रचना कर्म को मान दिया और लेखन को सार्थकता ... स्नेह बनाये रखे .. सादर
आदरणीय जवाहर सर ..नमस्कार .बहुत दिनों बाद आये ..
जी आपसे पुर्णतः सहमत हूँ .. सादर, स्नेह बनाये रखे /
आदरणीय शरदेन्दु सर ..
रचनाकर्म ने आपके मर्म को छुआ ..लिखना सफल रहा ..ह्रदय से निकले आपके शब्द मेरे लिए आशीर्वाद है .. स्नेह बनाए रखे / सादर
अलग तरह की कविता है, एक व्यथा है, एक संकेत, एक सच और एक दुःख.....
इस रचना पर बधाइयाँ महिमा जी !!
भूल गयी
तुम स्त्री हो !
किसी भी उम्र की हो
क्या फर्क पड़ता है
आदम की भूख
उम्र नहीं देखती
ना ही देखती है
देश धर्म औ जात
बस सूंघती है
मादा गंध
बहुत सुन्दर आ0 महिमा जी हार्दिक बधाई ....
नारी उत्थान का मूल नारी ही है , एक दिन नारी जाग्रत होंगी और क्रांति होंगी .....
आपकी रचना भी सहायक है
आभार !
तुम स्त्री हो !
किसी भी उम्र की हो
क्या फर्क पड़ता है
आदम की भूख
उम्र नहीं देखती
ना ही देखती है
देश धर्म औ जात
बस सूंघती है
मादा गंध................................बहुत सही आ. महिमा जी हार्दिक बधाई स्वीकारें
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