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बहुत खूब! 'रमजान के उस एक महीने, दीन और ईमान का पालन अनिवार्य है; नहीं तो खुदा का कहर टूट पड़ेगा. उसके बाद तो कुछ भी 'स्याह सफेद' करते रहो, कोई हर्ज नहीं'- कितने ही लोग, ऐसा सोचते होंगे. बीमार मानसिकता पर प्रहार करने वाली, सार्थक एवं प्रभावी लघुकथा. बधाई आपको.
प्रस्तुत लघुकथा न तो हिंसा की बात करती है न धर्म-रक्षा की. यह सीधे आईना दिखाती है आज के ढोंगियों की करतूतों की. आज नियम और आचरण कितने छिछले हो गये हैं. नैतिकता के प्रति हम कितने लापरवाह हैं.
भाई गणेशजी, आपकी पारखी नज़र ने जिस महीनी से तथ्य के प्रति इशारा किया है वह इस लघुकथा को बहुत ऊँचाइयाँ दे सकने में सक्षम है. बहुत-बहुत बधाइयाँ लें
आ0 बागी सर जी, वाह! सर जी, जम के क्लास ली है। तहेदिल से बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें। सादर
भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.... |
आदरणीय अभिनव अरुण जी, आपके द्वारा प्राप्त मुक्त कंठ से प्रशंसा हर्षकारी है, बहुत बहुत आभार।
सराहना हेतु आभार आदरणीय यतीन्द्र पाण्डेय जी ।
आदरणीया अन्नपूर्णा बाजपेयी जी, उत्साहवर्धन करती प्रथम टिप्पणी हेतु आतिश: आभार।
सच्चाई बयान करती लघुकथा, आदरणीय बागी जी. बधाई स्वीकार करें.
आज मनुष्य के मन में उपरवाले डर एक समय विशेष में ही रहता है उसके बाद उनकी मनुष्यता कहाँ जाती है पता नही.
वाह बागी जी क्या कहने .. अच्छा दो भाव बखूबी निखर कर आये हैं ... एक तो कहीं न कहीं आज भी भय है उपर वाले का जो हमें सच्चाई का रस्ते का एहसास कराता है पर फिर भी हम दुनियाबी गणित में उलझे रहते हैं ..और दूसरा छोटू का उत्तर उसमे बहुत कुछ है ..हास्य का पुट भी .... अत्यंत श्रेष्ठ रचना अरसे बाद ऐसी सशक्त लघु कथा पढ़ी ..बहुत बहुत बधाई आपको !!
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