For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

निरर्थक - (रवि प्रकाश)

मरियल गाय सी
आँगन में खड़ी धूप में,
पर-कुतरी चिड़िया की तरह
मुँह के बल लाचार हवा गिरती है,
आधी टूटी अगरबत्ती से सरकते
बेजान धुँए की लकीरों से
ज़बरदस्ती दबाए गए
बीड़ी और शराब के भभके,
बालिश्त भर के रसोईघर में
धुँए से झाँकती दो-चार लपटों पर
निहत्थे तवे की छाती से चिपकी
काली चौकोर रोटी,
पीतल की पुरानी हँडिया
टूटे नल से रिसते पानी को
सँजोने की नाकाम कोशिश में
अक्सर घबड़ा जाती है।
दीवारों की उभरी पसलियों पर
मुँह फुलाए लटके चंद चिथड़े
जो पपड़ियों से गुत्थमगुत्था हो जाते हैं;
बरसाती पानी इसी भीत पर
जाने क्या-कुछ लिखता-मिटाता है।
मुन्ने का इकलौता झुनझुना
आखिरी पुर्ज़े तक बजता है,
मुन्नी की गुड़िया फटा रूमाल ओढ़ कर
रोज़ दुल्हन बनती है,
माँ किसी बल्ब सी
कभी धुँधली,कभी उजली,कभी ख़ामोश
मगर अपनी जगह पर क़ायम,
बाबा जो चेहरा ले कर घर से निकलते हैं
लौटते वक़्त इतना बदल जाता है
कि शिनाख़्त नहीं कर पाता कोई।
रुबीनिया की जड़ों सा
विषाद फैलता चला जाता है,
हर ढलती साँझ के साथ
अवसाद और अधिक गहराता है।
थिगलियों से बनी गुदड़ियाँ
दिन में कुर्सी और रात में बिस्तर हो जाती हैं,
चाँद का मौसम
लाता है रोशनी,
वरना कैरोसीन की पगलाई गन्ध
बावरी सी फिरती है
और नथुनों में जमती कालिख
ढिबरी को ज़्यादा देर जलने नहीं देती।
रात का बेतरतीब फैलाव,
उलझे सपने,सहमी सी कल्पनाएँ,
घुटती ख़ामोशी में
भाँय-भाँय करता सन्नाटा
भौंकते कुत्तों और चीखते घुग्घुओं
के साथ मिल कर
हर रात ख़तरनाक हो जाता है;
फिर भी सुबह की चहक-महक
ज़रा देर से आए तो अच्छा !
सूरज की आँख लग जाए तो अच्छा !
अँधेरा कुछ हल नहीं करता,
मगर उजाले की
कनखियों और कनबत्तियों से
कहीं अच्छा है।
इसी तरह इस घर में बरसों से
बेमतलब पैदा होते है बच्चे
रोटी की जुगत में
ढलती है जवानियाँ
और वक़्त से पहले ही
लील जाता है बुढ़ापा
सब निशानियाँ धड़कनों की
बस यूँ ही.....निरर्थक !!!

मौलिक एवं अप्रकाशित।

Views: 537

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Ravi Prakash on September 8, 2013 at 3:31pm
धन्यवाद जी !!!
Comment by rajveer singh chouhan on September 6, 2013 at 1:12pm

कविता नही जेसे हकीकत हो एक एक अल्फाज  एसा लगता है इसे पढ ही नही महसुस भी किया जा सक्त है मानो जिन्दगी पर ये हक़ीकत सर्प सी रेंग कर जिस्म से उतर गयी हो और उसकी सरसराहट अब भी महसुस होती हो । अतिसुन्दर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 25, 2013 at 11:53pm

इस निरर्थक की सार्थकता इसी में है कि इस प्रस्तुति को रचना न कह आजके घोर यथार्थ का सटीक शब्द-चित्र कहना अधिक पसंद करूँगा.

जिस समाज के पहलुओं का वर्णन है, वह मिला हुआ जीवन जीता नहीं, उसे ढोता है, जिसमें घर से लेकर समाज के अक्सर सभी अवयव अपने-अपने हिसाब से इस ढोने पर बोझ बढ़ाते जाते हैं.
एक-एक पंक्ति बिम्ब जीती है.


बहुत-बहुत बधाइयाँ और असीम शुभकामनाएँ.. .

Comment by Ravi Prakash on August 17, 2013 at 5:49pm
thanks
Comment by विजय मिश्र on August 17, 2013 at 12:40pm
अप्रतिम रचना , शब्दों के अद्भुत समायोजन और भाव तो भारत की विचलित आत्मा का दुःख ही है , कुम्भीपाक भोगते ८०% भारतीय परिवारों की आत्मकथा लिख दी आपने . प्रणाम रविजी ! आपको और आपकी इस रचना को भी .
Comment by Ravi Prakash on August 16, 2013 at 9:00pm
thanks Vinita Ji.
Comment by Vinita Shukla on August 16, 2013 at 11:24am

लाचार जिंदगियों की बेचारगी, अत्यंत प्रभावी रूप से उकेरी है- आपकी इस पोस्ट ने. बहुत बहुत बधाई.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"स्वागतम"
6 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

देवता चिल्लाने लगे हैं (कविता)

पहले देवता फुसफुसाते थेउनके अस्पष्ट स्वर कानों में नहीं, आत्मा में गूँजते थेवहाँ से रिसकर कभी…See More
8 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय,  मिथिलेश वामनकर जी एवं आदरणीय  लक्ष्मण धामी…"
9 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-185

परम आत्मीय स्वजन, ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 185 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Wednesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रस्तुति पर आपसे मिली शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ..  सादर"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
Tuesday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Monday
Sushil Sarna posted blog posts
Nov 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Nov 5
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Nov 5

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service