2122 2122 2122
पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से
क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से
मंज़िलों के वास्ते कितने हैं पागल
हर किसी को पूछना है तिश्नगी से
इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है
लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से
आदमीयत की महज़ तो आरजू है
और हमको चाहिये क्या आदमी से
धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें
धूल खाते लटकते जो अलगनी से
.
गिरिराज भंडारी
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदर्णीय विजय भाई , उत्साह वर्धन के लिये बहुत बहुत आभार !
आदरणीय सोनम जी , हौसला अफज़ाई के किये आपका बहुत शुक्रिया !!
आदरणीय अरुन भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!
पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से
क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से.......................
खुबसूरत ग़ज़ल
वाह आदरणीय लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने मतले ने मन मोह लिया सभी अशआर बेहद शानदार बन पड़े हैं दिल से दाद कुबूल फरमाएं.
बहुत सशक्त और खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीय बहुत बधाई क्या कहने --
इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है
लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से
आदमीयत की महज़ तो आरजू है
और हमको चाहिये क्या आदमी से
उम्दा वाह !!
आदरणीय वन्दना जी उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!
धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें
धूल खाते लटकते जो अलगनी से
बहुत बढ़िया
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