2122 2122 2122
पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से
क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से
मंज़िलों के वास्ते कितने हैं पागल
हर किसी को पूछना है तिश्नगी से
इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है
लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से
आदमीयत की महज़ तो आरजू है
और हमको चाहिये क्या आदमी से
धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें
धूल खाते लटकते जो अलगनी से
.
गिरिराज भंडारी
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतीश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका हार्दिक आभार !!
आदरणीय सूबे सिंह जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका दिली आभार !!
आदमीयत की महज़ तो आरजू है
और हमको चाहिये क्या आदमी से
बिल्कुल .... इंसान से इंसानियत की उम्मीद तो की ही जां सकती है ........ बधाई भंडारी साहेब
गिरिराज जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है....
यह आपकी चिन्ता जो ग़ज़ल में दिखाई दे रही है यह आज के समाज में वाक्य में गहरा गई है। इसका हल हमें संतोष से रहना होगा, जो हमारे बीच है नहीं।।
नीरज भाई, बहुत बहुत शुक्रिया , आपने शे र पूरी तरह से आत्मसात किया !! आभार !!
धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें
धूल खाते लटकते जो अलगनी से
बस यही ज़रूरत है आज की धर्म जो
इंसान को बाँटता है उस से बड़ा अधर्म
कुछ और नही है ऐसे धर्मो का राम नाम
सत्य ही कर देना चाहिए , धर्म के ठेकेदारों
ने जितना हमें लूटा है शायद ही किसी और ने लूटा हो .
अब ज़रूरत है जागने की , अब ज़रूरत है बदलने की
और एक ही धर्म में रंग जाए ये दुनिया वो धर्म है
प्रेम का सद्भावना का इंसानियत का समभाव का ,
आपकी ये ये कविता से बहुत बहुत आह्लादित हूँ
और विशेष कर इस पक्तिं से ,
बहुत बहुत शुभकामनाएं गिरिराज भाई ।
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