2122 1212 22
कुछ बहा पर बचा ज़रा भी है
जख़्म लेकिन, कही हरा भी है
जिनको बांटा उन्हें मिला भी पर
प्यार से दिल मेरा भरा भी है
ख़्वाब ताबीर तक कहाँ पहुंचा
थक के हारा, कभी मरा भी है
बात करता है वो महज़ सच की
सरफिरा है मगर खरा भी है
जख़्म तुम सोच के ही दिखलाओ
हाथ निश्तर है ,उस्तरा भी है
ज़िन्दगी एक स्वाद क्या मानी
स्वाद मीठा है चरपरा भी है
कोई कहता मुझे,मै खुश होता
तू कहीं से गज़ल सरा भी है
मौलिक एवँ अप्रकाशित
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//कुछ बहा पर बचा ज़रा भी है
जख़्म लेकिन, कही हरा भी है//
ख़्वाब ताबीर तक कहाँ पहुंचा
थक के हारा, कभी मरा भी है
//बात करता है वो महज़ सच की
सरफिरा है मगर खरा भी है //
//जख़्म तुम सोच के ही दिखलाओ
हाथ निश्तर है ,उस्तरा भी है//
आदरणीय गिरिराज जी खूबसूरत अशआर हैं दाद कुबूल करें
आदरणीय गिरिराज जी , शानदार ग़ज़ल कहने के लिए बधाई स्वीकार करें ................'बात करता है वो महज़ सच की
सरफिरा है मगर खरा भी है '....बहुत खूब ......
बात करता है वो महज़ सच की
सरफिरा है मगर खरा भी है
बहुत बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय सर
बहुत अच्छा बधाई
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