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जो ख़्वाबों में बसा लूँ तो .......(गज़ल) //डॉ० प्राची

१२२२...१२२२ 

नज़र दर पर झुका लूँ तो 

मुहब्बत आज़मा लूँ तो 

तेरी नज़रों में चाहत का 

समन्दर मैं भी पा लूँ तो 

बदल डालूँ मुकद्दर भी 

अगर खतरा उठा लूँ तो 

सियह आरेख हाथों का 

तेरे रंग में छुपा लूँ तो 

तेरी गुम सी हर इक आहट 

जो ख़्वाबों में बसा लूँ तो 

तुम्हारे संग जी लूँ मैं  

अगर कुछ पल चुरा लूँ तो 

न कर मद्धम सी भी हलचल 

मैं साँसों को सम्हालूँ तो 

तुम्हें ये राज क्या कहना 

इसे दिल में छुपा लूँ तो 

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 15, 2013 at 1:41pm

आ० डॉ० आशुतोष जी 

गज़ल की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 15, 2013 at 10:23am

आपकी ग़ज़ल का विन्यास और आसान लहजे में अभिव्यक्ति यानि कहन एकदम से ध्यान खींचते हैं. डॉ. प्राची, यह आपकी सम्वेदनशीलता ही है जो परमसत्ता के प्रति जिज्ञासु सुलभ समर्पण को एकदम से आचरण का रूप देती है. ऐसे में आप द्वारा कोई निवेदन एक विशेष कोण के साथ प्रस्तुत होता है.  यही तथ्य प्रस्तुत ग़ज़ल का भी मूल है.

आपने ग़ज़ल के व्याकरण को समझा है, यह अवश्य है, लेकिन कहते हैं न बिना अभ्यास और प्रयास साधना पूर्ण नहीं होती. यही बात यहाँ भी दिखती है. ग़ज़ल के कुछ मूलभूत दोष होते हैं, उनके प्रति संवेदनील होना ही चाहिये. मतला को इस लिहाज से देख जाइये. 

यह अवश्य है कि अलिफ़वस्ल को आपने बखूबी निभाया है, यथा, सियाह आरेख हाथों का .. बहुत खूब ! मगर शब्दों को देख लीजियेगा.

लेकिन तेरे रँग में छुपा लूँ तो   को क्या कर दिया आपने यह मुझे कुछ समझ में आया ?  रंग कभी रँग नहीं होता जी.

प्रथम दृष्ट्या तो इतना ही.. :-)))

वैसे, यदि ग़ज़ल पर आपका यह अबतक का सबसे गंभीर प्रयास हुआ है कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

इस बात पर दिल खोल कर बधाइयों का समय बनता है,आदरणीया.

शुभेच्छाएँ

Comment by vijayashree on September 14, 2013 at 6:12pm

हर शब्द  भावों का  मोती सा प्रतीत हो रहा है

हार्दिक बधाई डॉ प्राची  

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2013 at 5:15pm

मन को छू गयी, ऐसी उम्दा भाव गजल के लिए बधाई डॉ प्राची बहन जी 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 14, 2013 at 4:48pm

आदरणीय प्राची दी, बहुत खूबसूरत गज़ल हुई है, हर शेर दमदार ! बहुत बहुत दाद कबूलें !

एक और बात, कि क्या ये शेर बहर पर है ?

सियाह आरेख हाथों का

तेरे रँग में छुपा लूँ तो

इसमे 'सियाह' शब्द १२१ हो रहा है जबकि बहर के अनुसार १२२ होना चाहिए  ! हो सकता है कि यहाँ गज़ल का कोई नियम कार्य करता हो जिसका मुझे ज्ञान न हो ! अतः विद्वजनों से निवेदन है कि कृपया इसपर प्रकाश डाल शंका का निवारण करें !

Comment by Savitri Rathore on September 14, 2013 at 2:54pm

तुम्हारे संग जीना है 

जो कुछ लम्हें चुरा लूँ तो

तुम्हें ये राज क्या कहना

इसे दिल में छुपा लूँ तो
सुन्दर भावों को पिरोया है आपने अपने सटीक शब्दों में .........मेरे पास प्रशंसा योग्य शब्द नहीं हैं,प्राची जी !

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 14, 2013 at 1:06pm

आदरणीया प्राची जी ..छोटी बहर पर ग़ज़ल लिखना महारत का काम है ..ताजगी से भरी बेहतरीन ग़ज़ल ..लेकिन छुपाते छुपाते आप सब कुछ कह कह गयीं ...मेरी तरफ से हार्दिक बधाई 

सियाह आरेख हाथों का 

तेरे रँग में छुपा लूँ तो,,,,पहली पंक्ति में मुझे गेयता में कुछ बाधा लगी ..१२२२ के जगह १२१२ की बजह से शायद ..बैसे तकनीकी पक्ष मुझे ज्यादा मालूम नहीं ..यदि मेरा आकलन गलत हो तो क्षमा करें ..सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 14, 2013 at 10:05am

आदरणीय अभिनव अरुण जी 

गज़ल के भावनाएं और शेर आपको पसंद आये.. यह गज़ल लेखन प्रयास के लिए उत्साहवर्धक है 

सादर धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 14, 2013 at 10:03am

आदरणीय शिज्जू जी 

रंग शब्द के वज़न व स्वरुप पर मैं अवश्य ही पुनः आश्वस्त हो लेती हूँ..धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 14, 2013 at 10:01am

गज़ल प्रयास पर प्रोत्साहित करते अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० सुरेन्द्र भ्रमर जी

कृपया ध्यान दे...

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