१२२२...१२२२
नज़र दर पर झुका लूँ तो
मुहब्बत आज़मा लूँ तो
तेरी नज़रों में चाहत का
समन्दर मैं भी पा लूँ तो
बदल डालूँ मुकद्दर भी
अगर खतरा उठा लूँ तो
सियह आरेख हाथों का
तेरे रंग में छुपा लूँ तो
तेरी गुम सी हर इक आहट
जो ख़्वाबों में बसा लूँ तो
तुम्हारे संग जी लूँ मैं
अगर कुछ पल चुरा लूँ तो
न कर मद्धम सी भी हलचल
मैं साँसों को सम्हालूँ तो
तुम्हें ये राज क्या कहना
इसे दिल में छुपा लूँ तो
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ० डॉ० आशुतोष जी
गज़ल की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद
आपकी ग़ज़ल का विन्यास और आसान लहजे में अभिव्यक्ति यानि कहन एकदम से ध्यान खींचते हैं. डॉ. प्राची, यह आपकी सम्वेदनशीलता ही है जो परमसत्ता के प्रति जिज्ञासु सुलभ समर्पण को एकदम से आचरण का रूप देती है. ऐसे में आप द्वारा कोई निवेदन एक विशेष कोण के साथ प्रस्तुत होता है. यही तथ्य प्रस्तुत ग़ज़ल का भी मूल है.
आपने ग़ज़ल के व्याकरण को समझा है, यह अवश्य है, लेकिन कहते हैं न बिना अभ्यास और प्रयास साधना पूर्ण नहीं होती. यही बात यहाँ भी दिखती है. ग़ज़ल के कुछ मूलभूत दोष होते हैं, उनके प्रति संवेदनील होना ही चाहिये. मतला को इस लिहाज से देख जाइये.
यह अवश्य है कि अलिफ़वस्ल को आपने बखूबी निभाया है, यथा, सियाह आरेख हाथों का .. बहुत खूब ! मगर शब्दों को देख लीजियेगा.
लेकिन तेरे रँग में छुपा लूँ तो को क्या कर दिया आपने यह मुझे कुछ समझ में आया ? रंग कभी रँग नहीं होता जी.
प्रथम दृष्ट्या तो इतना ही.. :-)))
वैसे, यदि ग़ज़ल पर आपका यह अबतक का सबसे गंभीर प्रयास हुआ है कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
इस बात पर दिल खोल कर बधाइयों का समय बनता है,आदरणीया.
शुभेच्छाएँ
हर शब्द भावों का मोती सा प्रतीत हो रहा है
हार्दिक बधाई डॉ प्राची
मन को छू गयी, ऐसी उम्दा भाव गजल के लिए बधाई डॉ प्राची बहन जी
आदरणीय प्राची दी, बहुत खूबसूरत गज़ल हुई है, हर शेर दमदार ! बहुत बहुत दाद कबूलें !
एक और बात, कि क्या ये शेर बहर पर है ?
सियाह आरेख हाथों का
तेरे रँग में छुपा लूँ तो
इसमे 'सियाह' शब्द १२१ हो रहा है जबकि बहर के अनुसार १२२ होना चाहिए ! हो सकता है कि यहाँ गज़ल का कोई नियम कार्य करता हो जिसका मुझे ज्ञान न हो ! अतः विद्वजनों से निवेदन है कि कृपया इसपर प्रकाश डाल शंका का निवारण करें !
तुम्हारे संग जीना है
जो कुछ लम्हें चुरा लूँ तो
तुम्हें ये राज क्या कहना
इसे दिल में छुपा लूँ तो
सुन्दर भावों को पिरोया है आपने अपने सटीक शब्दों में .........मेरे पास प्रशंसा योग्य शब्द नहीं हैं,प्राची जी !
आदरणीया प्राची जी ..छोटी बहर पर ग़ज़ल लिखना महारत का काम है ..ताजगी से भरी बेहतरीन ग़ज़ल ..लेकिन छुपाते छुपाते आप सब कुछ कह कह गयीं ...मेरी तरफ से हार्दिक बधाई
सियाह आरेख हाथों का
तेरे रँग में छुपा लूँ तो,,,,पहली पंक्ति में मुझे गेयता में कुछ बाधा लगी ..१२२२ के जगह १२१२ की बजह से शायद ..बैसे तकनीकी पक्ष मुझे ज्यादा मालूम नहीं ..यदि मेरा आकलन गलत हो तो क्षमा करें ..सादर
आदरणीय अभिनव अरुण जी
गज़ल के भावनाएं और शेर आपको पसंद आये.. यह गज़ल लेखन प्रयास के लिए उत्साहवर्धक है
सादर धन्यवाद
आदरणीय शिज्जू जी
रंग शब्द के वज़न व स्वरुप पर मैं अवश्य ही पुनः आश्वस्त हो लेती हूँ..धन्यवाद
गज़ल प्रयास पर प्रोत्साहित करते अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० सुरेन्द्र भ्रमर जी
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