अपना टूटा चश्मा विनोद की ओर बढ़ाते हुए जमना लाल जी ने कहा – “बेटा मेरा चश्मा कई दिनों से टूटा है , और ये पर्चा लो दवाइयाँ भी “.............। विनोद झुँझला गया – “ क्या पिता जी रोज रोज खिट खिट करते रहते हो मेरे पास इन सब फालतू कामों के लिए बिलकुल समय नहीं है , मै नौकरी करूँ उसकी टेंशन झेलूँ कि आपकी समस्या देखूँ ।” जमना लाल जी कहते रह गए कि – “ बेटा ............. । ”
पर बेटे ने न सुना न उनकी ओर देखा बस अपनी धुन मे चलता चला गया । आज वे थोड़ी थोड़ी लकड़ियां ला ला कर इकट्ठी कर रहे थे । बेटा और बहू ने पूछा – “ पिता जी ये सब क्या है ?”
वे बोले – “ मेरी चिता की सामाग्री । मैंने सोचा तुम्हारे पास फालतू कामों के लिए और फालतू लोगों के लिए समय नहीं होगा । “
अप्रकाशित एवं मौलिक
Comment
अनुपमा जी तीखा सच बयां कर दिया. बधाई
वाकई मर्मस्पर्शी कथा है, बधाई आपको,
मगर मैने जो अभी तक खासतौर पे अपने आसपास देखा है कि संस्कार अभी तक बाकी है, कोई अपने पिता से तल्ख लहजे मे ऐसे बात नही करता अपने माता पिता का यथोचित सम्मान करता है हाँ लेकिन बहुओं के ऐसे आचरण को मैंने अक्सर महसूस किया है कि शादी के बाद भी बेटी बेटी होती है लेकिन बेटे को बेटा रहने नहीं देती। हर बेटा गलत नहीं होता हर बहू गलत नही होती। लेकिन अक्सर कहानियों मे बेटे को खलनायक बताया जाता है।
आदरणीया अन्नापूर्णा जी लघु कथा अन्दर तक झकझोर गई ,कम शब्दों में अपना सन्देश देने में कामयाब है यही इसकी ख़ासियत है बहुत-बहुत बधाई आपको
apka dhanyvad , adarniya Savitri ji .
adarniy Giriraj ji apka katahan satya hai , khichadi sanskriti ne sab duboya hai . is sanskriti ko hi chodna hoga .
अन्नपूर्णा जी, मर्मस्पर्शी रचना हेतु बधाई !
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