तुमने ठीक कहा था
तुम्हारे बिना देख नही पाऊंगा मैं
कोई भी रंग
पत्तियों का रंग
फूलों का रंग
बच्चों की मुस्कान का रंग
अज़ान का रंग
मज़ार से उठते लोभान का रंग
सुबह का रंग....शाम का रंग
मुझे सारे रंग धुंधले दीखते हैं
कुहरा नुमा...धुंआ-धुंआ...
और कभी मटमैला सा कुछ....
ये तुमने कैसा श्राप दिया है
तुम ही मुझे श्राप-मुक्त कर सकते हो..
कुछ करो...
वरना पागल हो जाऊंगा मैं.....
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
...कुछ शब्दों का सफ़र और तय कर अंत करते तो अच्छा था अनवर साहिब वैसे रचना रोचक है ध्यान खींचती है ,,साधुवाद
!!
आ० अनवर सुहैल जी
रचना में थोड़ा सा सपाटपन आ गया है..
अन्त में तो काव्यात्मकता बिल्कुल ही नहीं है.. कथ्य में अच्छी संभावनाएं है सिर्फ सम्प्रेषण पर थोड़ा सा काम करना होगा
शुभकामनाएँ
आदरणीय अनवर साहब,
इस बार अस्पष्टता बन गयी है संप्रेषण में. बिम्ब का सार्थक स्वरूप निखर न पाने के कारण मेरा पाठक उलझा हुआ रहा.
रचना का प्रारम्भ और अंत एक दूसरे से अलग लगे.
बहरहाल, आपकी प्रस्तुति को मेरी सादर शुभकामनाएँ
अच्छा प्रयास है, बधाई हो. शिल्प को और संवारा जा सकता है, अंत को भी थोड़ा कसा जा सकता है.
बहुत बढ़िया आदरणीय-
शुभकामनायें-
आदरणीय अनवर भाई , आपकी हर रचना कुछ क्षणों के लिये स्तब्ध कर देती है !! क्या कहूँ !! बहुत बहुत शुक्रिया ऐसी रचना पढ़्वाने के लिये !! और बधाई इस रचना के लिये !!
एक लाइन में पूरी पीड़ा व्यक्त कर गए , बधाई अनवर भाई ।
आदरणीय बहुत ही मार्मिक रचना पंक्ति दर पंक्ति अथाह प्रेम को बयां कर रही है बहुत बहुत बधाई स्वीकारें
वेदना और संवेदना का बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति हुई है, कविता बरबस आकर्षित करती है, सच ही तो कहा है, गर तू नहीं तो कुछ भी नहीं है । बहुत बहुत बधाई आदरणीय सुहैल साहब ।
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