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छांव में धूप का क्यों गुमाँ हो रहा
दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा
सड़ चुकी मान्यता सांस फिर ले रही
दिन चढ़े तक कोई शख़्स ज्यों सो रहा
ज़ाहिरन बात ये कह रहा है करम
बढ़ गया पाप जब तो कोई धो रहा
हाल की शक्ल में फ़र्क़ कुछ तो रहे
कल गया बीत वो जो रहा सो रहा
पश्चिमी कुछ हवा सभ्यता खा रही
आदमी इसलिये आदमी खो रहा
तितलियाँ ख़ौफ़ से उड़ नही पा रहीं
वाक़िआ कुछ बुरा रोज़ ही हो रहा
रोशनी भी कहीं दिख रही है मगर
अब्र भी कुछ घना उस तरफ हो रहा
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अनुराग भाई , आपकी सराहना बहुत उत्साह वर्धक है , आपका हार्दिक आभार
आदरणीय रविकर भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!
आदरणीय शिज्जू भाई , आपसे गज़ल की सराहना पाके निश्चित उत्साह वर्धन हुआ !! आपका हार्दिक आभार !!
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छांव में धूप का क्यों गुमाँ हो रहा
दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा//
सारी गज़ल के भाव अच्छे लगे, पर यह तो बहुत ही खूब है!
सादर,
विजय निकोर
तितलियाँ ख़ौफ़ से उड़ नही पा रहीं
वाक़िआ कुछ बुरा रोज़ ही हो रहा
.....बहुत खूब आ . गिरिराज जी ग़ज़ल शानदार हुई है बधाई !!
बहुत बधाई आपको , जो जिक्र छेड़ा है इस गज़ल में उसको कुछ अधुरा सा छोड़ दिया आपने थोडा सा और आगे बाधा देते तो दिल का कोई भी तार छेड़े बिना न रहते ! दिली मुबारकबाद आदरणीय !
सुन्दर गजल-
आभार भाई गिरिराज जी-
बेहतरीन आदरणीय गिरिराज सर आपकी ग़ज़लगोई ने खूब रंग जमाया है वाह दिली दाद कुबूल करें
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