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खुद ही सारी रात जलता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

शोहरतें पाने मचलता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

हसरतों पे जीता मरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

 

यूँ किसी की याद में जलने का मौसम गम भरा

फिर उसी को याद करता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

                                                         

चोट खाता है मुसलसल जिन्दगी की राह में

तब सनम जैसे सँवरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

 

आईने से रू-ब-रू होने की हिम्मत है नहीं

हार के फिर आह भरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

 

इल्म है उसको गली ये जा रही है किस तरफ

जान कर उससे गुजरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

 

वो हकीकत जानता है कुछ न लाया साथ में

फिर भी देखो हाथ मलता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

 

दर्द से नज़रें चुराने “दीप” वो सारे बुझा

खुद ही सारी रात जलता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

 

संदीप कुमार पटेल “दीप”

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

 

 

 

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Comment by ram shiromani pathak on September 27, 2013 at 5:13pm

यूँ किसी की याद में जलने का मौसम गम भरा

फिर उसी को याद करता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये

                                                         

चोट खाता है मुसलसल जिन्दगी की राह में

तब सनम जैसे सँवरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये//

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय भाई संदीप जी // हार्दिक बधाई आपको

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 26, 2013 at 11:26pm

बेहद सुंदर गजल, दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय संदीप जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 26, 2013 at 8:59pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल 

हार्दिक बधाई आ० संदीप पटेल जी 

Comment by vijay nikore on September 25, 2013 at 7:45pm

खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय संदीप जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 25, 2013 at 2:34pm

क्या कहने मित्रवर बेहद सुन्दर ग़ज़ल खूबसूरत अशआर दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by Saarthi Baidyanath on September 24, 2013 at 10:52pm

:
इल्म है उसको गली ये जा रही है किस तरफ

जान कर उससे गुजरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये....साहब ..उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक शुभकामना ..! बढ़िया शेर :)

Comment by Neeraj Neer on September 24, 2013 at 7:30pm

बहुत खूब ... सुन्दर गजल कही है .. बधाई 

Comment by Parveen Malik on September 24, 2013 at 6:24pm
बहुत खूबसूरत गजल संदीप जी ... हार्दिक बधाई !!
Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 24, 2013 at 5:27pm

फैलता है ये समंदर सा कभी , फिर सिमटता है क्यों बूंद सा , सोचिये 

बहुत सारे सवाल छोडती है ये गज़ल बहुत बहुत बधाई !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 24, 2013 at 5:17pm

बहुत  बढ़िया गज़ल कही भाई सन्दीप जी !! बहुत बधाई !!

कृपया ध्यान दे...

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