एक धमाका
फिर कई धमाके
भय और भगदड़....
इंसानी जिस्मों के बिखरे चीथड़े
टीवी चैनलों के ओबी वैन
संवाददाता, कैमरे, लाइव अपडेट्स
मंत्रियों के बयान
कायराना हरकत की निंदा
मृतकों और घायलों के लिए अनुदान की घोषणाएं
इस बीच किसी आतंकवादी संगठन द्वारा
धमाके में लिप्त होने की स्वीकारोक्ति
पाक के नापाक साजिशों का ब्यौरा
सीसीटीवी कैमरे की जांच
मीडिया में हल्ला, हंगामा, बहसें
गृहमंत्री, प्रधानमन्त्री से स्तीफे की मांग
दो-तीन दिनों तक
यही सब कुछ
फिर अचानक किसी नाबालिग से बलात्कार
किसी रसूखदार की गिरफ्तारी के लिए
सड़कों पर धरना प्रदर्शन
मोमबत्ती मार्च....
फिर कोइ नया शगूफा
फिर कोई नया विवाद
कितनी जल्दी भूल जाते हैं हम
अपनी लड़ाइयों को
कितनी जल्दी बदल लेते हैं हम मोर्चे....
अधूरी लड़ाइयों का दौर है ये
अधूरे ख़्वाबों के जंगल में
भटकने को मजबूर हैं सिपाही.....
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
कविता की सार्थकता और उसके हेतु को ढूँढती ऐसी कोई कोशिश तनिक शाब्दिक तो बना देती है, परन्तु कभी-कभी सपाटबयानी अभिव्यक्ति की ताकत बन कर ही सामने आती है.
धब्बे को धब्बा कहना रचनाकर्म नहीं है, सही है. लेकिन कई दफ़े ऐसा होता है, संवेदना शिल्प और आचरण के आवरण नहीं चाहती. वह संवाद बनाना चाहती है.
प्रस्तुत कविता ऐसी ही मनोदशा में संवाद बनाने की प्रक्रिया का प्रतिफल बन कर उभरी है. बहुत-बहुत बधाई हो.. .
हालाँकि, ऐसी कोशिश दोधारी तलवार पर चलने के समान हुआ करता है. अगर कविता सम्भल न पायी तो वही कोरी भाषणबाजी भर हो कर रह जाती है. कवि को सतत सचेत रहना पड़ता है.
सादर
.
वाह भाई बहुत बड़ी बात कह दी अपने जी //हार्दिक बधाई आपको //सादर
कितनी जल्दी भूल जाते हैं हम
अपनी लड़ाइयों को
कितनी जल्दी बदल लेते हैं हम मोर्चे....
अधूरी लड़ाइयों का दौर है ये
अधूरे ख़्वाबों के जंगल में
भटकने को मजबूर हैं सिपाही.................. सही कहा आपने .... सुन्दर रचना, बधाई
सही कहा आपने , हम भूल गए है की जब तक एक लड़ाई का परिणाम न निकल जाए दूसरी शुरू करना व्यर्थ है ! सुंदर कटाक्ष !
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