मिली जब से पनाहें सच, यहां इल्जाम को घर में
लिए बदनामी संग फिरते, छुपाकर नाम को घर में
बुलाकर नेह को रखो, यहां सम्मान से तुम नित
मगर भूले से भी मत देना, “शरण काम को घर में
निपट लेगा फिर वन में, अकेली ताड़का से तो वो
यहां सौ-सौ लंकेश बैठे हैं, बुलाओ राम को घर में
सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का
मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में
अभी तो साथ चलनी है, कर्ज में लिपटी हुर्इ सुबहें
भला फिर कैसे रोकें हम, धुआंती “शाम को घर में
दिखाकर छोड़ने बाहर, सुखों की फुलझड़ी है कम
चलो चुपके से छलकायें, दुखों के जाम को घर में
मिली जुगजुग से हाथों को, यहां हँसहँस के बेकारी
जगह कैसे मिलेगी फिर, ‘लखन’ आराम को घर में
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
प्रयास करने के लिए शुक्रिया.
शुभेच्छाएँ
भाव बहुत बढियां है मगर विद्य जनों की बात पर गौर जरुर करें आदरणीय ! शुभकामनाये
कुछ शब्दों के हेर फेर से रचना और खिल उठेगी-
सुन्दर कथ्य-
शुभकामनायें आदरणीय
भावों का सुंदर सम्मिश्रण है आदरणीय लक्ष्मण भाई.... बधाई हो आपको...
सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का
मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में
सुन्दर रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
दिखाकर छोड़ने बाहर, सुखों की फुलझड़ी है कम
चलो चुपके से छलकायें, दुखों के जाम को घर में....बढ़िया :)
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