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मिली जब से पनाहें सच, यहां इल्जाम को घर में
लिए बदनामी संग फिरते, छुपाकर नाम को घर में

बुलाकर नेह को रखो, यहां सम्मान से तुम नित  
मगर भूले से भी मत देना, “शरण काम को घर में

निपट लेगा फिर वन में, अकेली ताड़का से तो वो
यहां सौ-सौ लंकेश  बैठे हैं, बुलाओ राम को घर में

सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का
मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में

अभी तो साथ चलनी है, कर्ज में लिपटी हुर्इ सुबहें
भला फिर कैसे रोकें हम, धुआंती “शाम को घर में

दिखाकर छोड़ने बाहर, सुखों की फुलझड़ी है कम
चलो चुपके से छलकायें, दुखों के जाम को घर में

मिली जुगजुग से हाथों को, यहां हँसहँस के बेकारी
जगह कैसे मिलेगी फिर, ‘लखन’ आराम को घर में

लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

मौलिक व अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 5, 2013 at 11:40pm

प्रयास करने के लिए शुक्रिया. 

शुभेच्छाएँ

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 5, 2013 at 9:26pm

भाव बहुत बढियां है मगर विद्य जनों की बात पर गौर जरुर करें आदरणीय ! शुभकामनाये 

Comment by रविकर on October 5, 2013 at 5:58pm

कुछ शब्दों के हेर फेर से रचना और खिल उठेगी-
सुन्दर कथ्य-
शुभकामनायें आदरणीय

Comment by Sushil.Joshi on October 5, 2013 at 2:14pm

भावों का सुंदर सम्मिश्रण है आदरणीय लक्ष्मण भाई.... बधाई हो आपको...

Comment by D P Mathur on October 5, 2013 at 11:49am

सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का
मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में 

सुन्दर रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 5, 2013 at 11:35am
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई , सुन्दर रचना लगी , बातें भी बहुत सुन्दर कही है आपने !!!बहुत बहुत बधाई !!! लेकिन बह्र नही समझ पा रहा हूँ !!!
Comment by Saarthi Baidyanath on October 5, 2013 at 11:29am

दिखाकर छोड़ने बाहर, सुखों की फुलझड़ी है कम
चलो चुपके से छलकायें, दुखों के जाम को घर में....बढ़िया :)

कृपया ध्यान दे...

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