2122 2122 2122 2122
बह्र----रमल मुसम्मन सालिम
.
हादिसों से आज जिंदगियाँ गुजरती जा रही हैं
शबनमी बूंदे जों ख़ारों से फिसलती जा रही हैं
लूट कर अम्नो चमन को चल पड़े हो तुम जहाँ से
बद दुआओं की वहां किरचें बिखरती जा रही हैं
अब्र तुझको क्या मिलेगा यूँ समंदर पे बरस के
देख नदियाँ आज सहरा में सिमटती जा रही हैं
हाथ दिल पर रख लिया फिर सीलती उस झोंपड़ी ने
रश्मियाँ ऊँची हवेली में उतरती जा रही हैं
बेटियां बाहर गई तो चैन क्यों आता नहीं अब
देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं
जो जमीं शादाव रहती थी यहाँ पर कहकहों से
नफ़रतों की ये रिदाएँ क्यों पसरती जा रही हैं
या ख़ुदा पर्दों के पीछे छुप गईं तहज़ीब अब तो
जुल्म गर्दों की यहाँ सूरत निखरती जा रही हैं
पर गुलामी कैद से जिसको शहीदों ने बचाया
उस कमल की 'राज' पंखुड़ियाँ उखड़ती जा रही हैं
**********************************
ख़ार =कांटे
शादाव=हरीभरी
किरचें =छोटे छोटे कण
रश्मियाँ =सूर्य की किरणें
रिदाएँ =चादरें
सहरा =रेगिस्तान
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
//शबनमी बूंदे ज्यों ख़ारों से फिसलती जा रही हैं// इसमें ज्यों को लघु करके तक्तीअ की है गाते हुए ज्यों को गिराकर लिखा गया है
आदरणीय राजेश दीदी जहाँ तक मेरी जानकारी थी कि ज्यों की मात्रा नही गिराई जा सकतीl आपका अनुभव और जानकारी मुझसे कहीं ज्यादा है, हो सकता है मै ग़लत हूँ और मेरी शंका निराधार हैl
मैं आपसे पहले की गई टिप्पणी के लिये (मिसरे की पुनः तक्तीअ करके देखें) मुआफी चाहता हूँ
आय हाय हाय, अभिभूत हूँ आदरणीया,कथ्य और शिल्प की ऐसी जुगलबंदी की है कि मन प्रफुलित हो गया, बहुत ही अच्छी ग़ज़ल हुई है, इस ग़ज़ल पर आपने अवश्य भरपूर समय दिया होगा, बहुत बहुत बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी ।
बहुत बढ़िया
शुभकामनायें दीदी-
अब्र तुझको क्या मिलेगा यूँ समंदर पे बरस के
देख नदियाँ आज सहरा में सिमटती जा रही हैं
आदरणीया राज जी , बेमिसाल गज़ल कही है आपने , हार्दिक बधाई !!
हाथ दिल पर रख लिया फिर सीलती उस झोंपड़ी ने
रश्मियाँ ऊँची हवेली में उतरती जा रही हैं
बेटियां बाहर गई तो चैन क्यों आता नहीं अब
देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं -------------- दोनो शेरों के लिये अलग से दाद कुबूल करें !!!!
आदरणीया राज जी:
खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई।
एक विचार... पहली पंक्ति में "ज़िन्दगी ... है" .. और दूसरी पंक्ति में ’एक वचन’ कैसा रहेगा ?
अनेकानेक बधाई..
सादर,
विजय निकोर
बेटियां बाहर गई तो चैन क्यों आता नहीं अब
देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं...... वाह..... आज की हक़ीकत बयान करता हुआ शेर....... इस ख़ूबसूरत गज़ल के लिए बधाई हो आदरणीया राजेश जी...
जीतेन्द्र गीत जी ग़ज़ल पर आपकी सराहना मिली मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ
अब्र तुझको क्या मिलेगा यूँ समंदर पे बरस के
देख नदियाँ आज सहरा में सिमटती जा रही हैं........वाह! शानदार शेर
हाथ दिल पर रख लिया फिर सीलती उस झोंपड़ी ने
रश्मियाँ ऊँची हवेली में उतरती जा रही हैं .............वाह! क्या बात है
बेहतरीन,लाजवाब गजल, तहे दिल से दाद कुबूल कीजिये आदरणीया राजेश जी
प्रिय गीतिका जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना पाकर हर्षित हूँ मेरा लेखन सार्थक हुआ हृदय तल से आभारी हूँ ,हार्दिक शुभकामनायें
बेटियां बाहर गई तो चैन क्यों आता नहीं अब
देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं ,,,बहुत खूब सामयिक शेअर हुआ है|
बढ़िया गज़ल के लिए शुभकामनायें स्वीकारिए आ0 राजेश दीदी!
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online