साथ वाले सहगल साहिब यश जी से बोले घई जी के पिता हस्पताल में हैं यश जी ने कहा कल तो मेरे पास बैठे थे बेचारे परेशान थे ,पूछ रहे थे मुझे यहाँ आए हुए कितने दिन हो गए मैंने कहा मालूम नहीं उन्होंने फिर जिद्द करके पूछा फिर भी अंदाजा मुझे आए हुए कितना समय हो गया है ,मैंने कहा लगभग एक महीना हुआ होगा तो बोले फिर वो [छोटा बेटा] मुझे लेने क्यों आ रहा है? अभी दो महीने तो नहीं हुए हैं यह क्यों भेज रहे हैं मुझे इसी उधेड़बुन में शायद वो सुबह तक उठ ही नहीं पाए ,उनके एक हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था और उनको हस्पताल ले जाना पड़ा यह सुनकर अमिताभ जी की बागबां से एक बार फिर आँखें नम थी क्योंकि वो दोहराई जा रही थी बार बार मेरे अपने देश के वृद्धों के साथ मेरे देश के युवा कर्णदारों द्वारा |
और याद आ गया कुछ दिन पहले लिखा एक दोहा
// सीखा उँगली को पकड़ चलना जिनके साथ
वृद्धावस्था में अभी ,थामों उनका हाथ //
..........................................
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
समाज की एक ज्वलंत समस्या पर बढ़िया लघु कथा ! बाकी आदरणीय बागी सर ने जो सुझाव दिया है उसके पालन से आप और हम सुधार कर और अच्छा प्रयास करेंगे ऐसी उम्मीद करता हूँ ! बधाई आपको
आदरणीय सरिता जी लघुकथा विषय मार्मिक और सामयिक है !!! बहुत बधाई !!
आदरणीया लघुकथा में कथ्य की प्रस्तुति इस तरह हो कि एक सामान्य पाठक को भी पहली बार पढ़ने में बात स्पष्ट हो, चूकि आप घटना से वाकिफ हैं इसलिए आप को सभी पात्र और कथ्य स्पष्ट है किन्तु पाठक तो कुछ नहीं जानता । कथ्य की प्रस्तुति में कभी कभी उन कथ्य का भी समावेश होता है जो बिलकुल काल्पनिक होता है ।
// इसका obo का लिंक भी प्रेषित करें//
लिंक नहीं समझ सका ।
आदरणीय गणेश जी कृपया उचित मार्गदर्शन करें ताकि मैं आगे से वो गलती न दुहराकर इसे सुधार सकूँ मुझे इसका obo का लिंक भी प्रेषित करें तो महती कृपा होगी
माफ़ी चाहूँगा आदरणीया, किन्तु कई बार पढ़ने के बाद भी, सहगल, यश, घई, अमिताभ और मैं के बीच उलझा रहा, यह जरुरी नहीं की हर पाठक "बागबां" फ़िल्म देखा ही हो, कुल मिलाकर यह लघुकथा शिल्प स्तर पर निराश करती है ।
आदरणीय अभिनव जी ,कपिश जी ,आदरणीय रविकर sir ,प्रथम प्रयास था लघुकथा पर
कल वास्तव में जब यह बात मेरे सामने घटी सारा वार्तालाप मेरे सामने हुआ तो रहा नहीं गया इसे लिखे बिना , भावी पीढ़ी ऐसे लोगों का क्या हश्र करेगी यह भूल जाते हैं शायद
और सबसे बड़े दुःख की बात है माँ भी है उनकी पर दोनों को इक्कठे रहना नसीब में नहीं
आज का युवा वर्ग, बुजुर्गों के साथ रहकर, अपनी खुशियों का बलिदान नही देना चाहता,शायद युवाओं की स्वतंत्रता भी भंग होती है, बहुत बढ़िया संदेशप्रद लघुकथा, बधाई स्वीकारें आदरणीया सरिता जी
मार्मिक-
सुन्दर सार्थक-
आभार आदरेया
आदरणीया सरिता जी , आपकी लघुकथा काफी मर्मस्पर्शी लगी । भौतिकता और स्पर्धा के दौर पता नहीं आने वाले समय में घर के बुजुर्गों की क्या स्थिति होगी !!!!!!
बढ़िया सन्देश परक रचना आदरणीया सरिता जी , हार्दिक बधाई आपको !
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