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दर्द के खूब समंदर देखे 
हमने बाहर नहीं अंदर देखे 

आह को वाह में बदल दें वो 
एक से एक धुरंधर देखे 

देवता के गुनाह देख लिए 
जब कथाओं में चंदर देखे 

लोग उंगली पे उठा लेते है 
कृष्ण देखे हैं ,पुरंदर देखे 

फंस ही जाते हैं अपनी चालों में 
जाल देखे हैं ,मछंदर देखे 
_____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल 

(मौलिक और अप्रकाशित )

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 1:35am

यह शैली अनायास हो गयी द्विपदी की भी हो सकती है.  लेकिन है वस्तुतः ग़ज़ल की. और उस तथ्य पर हम संभवतः आपस में बात कर चुके हैं.

सादर

Comment by वीनस केसरी on October 12, 2013 at 2:35am

बहुत सुन्दर ग़ज़ल है .... मात्रा बता दें तो कुछ शेर की तक्तीअ में आसानी हो
सादर

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 8, 2013 at 10:22pm

वाह वाह क्या कहने बेहतरीन प्रस्तुति क्या कहने घाव करे गंभीर वाली बात है बहुत बहुत बधाई स्वीकारें

Comment by विजय मिश्र on October 8, 2013 at 3:29pm
खूब , बहुत खूब !! आपने साबित किया -" कलम में दम हो तो कम में भी बहुत दम भरा जा सकता है . आत्मीय आभार विश्वंभरजी .
Comment by Sushil.Joshi on October 8, 2013 at 6:23am

बहुत बढ़िया.... बधाई हो आपको आदरणीय शुक्ल जी...

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 7, 2013 at 5:39pm

बहुत खूब ! क्या बात है ! हार्दिक बधाई !

Comment by Meena Pathak on October 7, 2013 at 5:26pm

बहुत खूब .. बधाई आप को 

Comment by Saarthi Baidyanath on October 7, 2013 at 11:53am

दर्द के खूब समंदर देखे 
हमने बाहर नहीं अंदर देखे

बहुत गहरी बात ....वाह महाशय :)

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 7, 2013 at 10:44am

गहरे भाव पगी छाप छोडती रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री विशम्भर शुक्ल जी |सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 7, 2013 at 7:43am

आदरणीय विश्वम्भर भाई , पूरी ग़ज़ल बेमिसाल कही है आपने !!! हर शेर लाजवाब हैं !!! बधाई !!!

दर्द के खूब समंदर देखे 
हमने बाहर नहीं अंदर देखे 
आह को वाह में बदल दें वो 
एक से एक धुरंधर देखे ---------------- दो शेरों के लिये अलग से दिली दाद कुबूल करें !!!

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