मन सिहरा ,ठहरा तनिक ,देखा अप्रतिम रूप ,
भोर सुहानी ,सहचरी ,पसर गई लो, धूप !
रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,
बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !
सुन किलकारी भोर की विहंसी निशि की कोख ,
तिमिर गया ,मुखरित हुआ जीवन में आलोक !
उगा भाल पर बिंदु सा लो सूरज अरुणाभ ,
अब निंदिया की गोद में रहा कौन सा लाभ !
_______________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
जीवन से अँधेरा चला जाए और आलोक फ़ैल जाए इससे सुखद क्या हो सकता है बेहतरीन
आदरणीय शुक्ल जी बहुत ही बढ़िया दोहे , सोना बिखेरते हुए , बहुत बधाई आपको ।
वाह !! सुन्दर दोहे...
हार्दिक बधाई !!!
आदरणीय विश्वम्भरजी, आपके छंद प्रयास पर आपको सादर धन्यवाद.
आपकी प्रस्तुति के आलोक में बहुत कुछ स्पष्ट हुआ है.
डॉ. प्राची के सुझाव पर ध्यान देना उचित होगा.
छंद प्रयास की हो श्रद्धा और धैर्य की अपेक्षा करता है.
सादर
bahut hi sundar dohe rache hain aadarneey sir ji .............bahut bahut badhaai ho
वाह !! सुन्दर दोहे...
हार्दिक बधाई !!!
बहुत ही मनोहारी दोहे हैं, सादर
भोर की सुन्दरता का मनोहारी चित्रण..हार्दिक बधाई आदरणीय विशम्भर शुक्ल जी
इस दोहे पर आपका ध्यानाकर्षण चाहूंगी :
रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,................विषम चरण की मात्रा १२ हो रही है और अंत भी २२ से है, यद्यपि विशाम्चरण की मात्रा १३ होनी चाहिये व चरणान्त १२, या १११ से होना चाहिये
बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !
सादर.
वाह शुक्ल जी सुन्दर दोहे ....हार्दिक बधाई आपको
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