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ज़िन्दगी जीने के कुछ, सामान भी तो हैं!
बुत शहर में बोलते, इंसान भी तो हैं!
भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े बने पिंजड़े,
साथ में फैले हुए, उद्यान भी तो हैं!
और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,
मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।
गाँव ही आकर अकारण हैं मचाते भीड़
यूँ शहर में बढ़ गए व्यवधान भी तो हैं!
क्यों नहीं हक माँगते, शासन से आगे बढ़?
जानकर ये बन रहे, नादान भी तो हैं!
हल चलाते हाथ कोमल हो नहीं सकते,
श्रम से होते रास्ते, आसान भी तो हैं!
माँ-पिता क्यों दोष देते, पुत्र को ही आज?
मन में उनके कुछ दबे, अरमान भी तो हैं।
दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?
ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामानी
Comment
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीया कल्पना मैम वाह
वाह !! आदरणीयआ कल्पना दी , बहुत सुंदर गजल , बहुत बधाई ।
अपने भीतर सुंदर भावों को समेटे इस सुंदर कृति के लिए हार्दिक बधाई आपको आदरणीया कल्पना जी...
आदरणीया कल्पना जी बहुत उम्दा ग़ज़ल लिखी है हर शेर एक सन्देश दे रहा है एक संशय आपने शहर की मात्रा १२ लगाईं है जब की मुझे गुरुजनों ने हमेशा ग़ज़ल में शह्र अर्थात २१ बताया है ,हो सकता है शहर भी ठीक हो किन्तु संशय तो है ही ,खैर फिलहाल आप इस सार्थक ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूलें
शंका दूर करने के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीया कल्पना रामानी जी
आदरणीय विजय जी, आदरणीय कवि-राज बुन्देली जी, आदरणीय गिरिराज भण्डारी जी, आदरणीय विजय जी, आदरणीय श्याम नरेन जी, आदरणीया कुंती जी, आप सबका हृदय से धन्यवाद।
आदरणीय शकील जी, आपको गज़ल पसंद आई, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद। नीचे मैंने बहर स्पष्ट कर दी है। शायद आपकी शंका का निवारण हो जाए।
2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2
//भी+ड़/ से/ मा+ना/ कि/ घर/, सिकु+ड़े/ ब+ने पिंज+ड़े//
सुंदर कहन आदरणीया कल्पना रामानी जी। मैं बहर के मामले में थोड़ा अल्पज्ञ हूं। एक निवेदन है। निम्न मिसरे की तक्तीअ कर दें, ताकि कुछ संशय दूर हो जाए।
//भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े बने पिंजड़े//
सादर..................
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको ...... |
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