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वक़्त बदला, हैं बदले ख़यालात से ...

ग़ज़ल -

 

२१२  २१२  २१२  २१२ 

 

वक़्त बदला, हैं बदले ख़यालात से 

रौंदता ही रहा हमको लम्हात से  . 

 

क्यों मयस्सर नहीं जिंदगी में सुकूँ 

जूझता ही रहा मैं तो हालात से   . 

 

माँगता था दुआ में तिरी रहमतें

उलझनें सौंप दी तूने इफरात से .

 

जुर्रतें वक़्त की कम हुईं हैं कहाँ 

खेलती ही रहीं मेरे जज़्बात से.

तू बरस कर कहीं भूल जाये न फिर 

भीगता ही रहा पहली बरसात से. 

 

बात शायद कभी ख़त्म होगी नहीं 

बात निकली वही बात ही बात से.

 "मौलिक व अप्रकाशित"

-ललित मोहन पन्त 

01 . 56  रात 

16. 10 . 2013    

Views: 762

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on October 16, 2013 at 11:28pm

आदरणीय ललित मोहन जी, इस उम्दा गज़ल के लिये बधाइयाँ...

जुर्रतें वक़्त की कम हुईं हैं कहाँ 

खेलती ही रहीं मेरे जज़्बात से.

 

इस अश'आर पर खासतौर से दाद स्वीकार कीजियेगा.................

Comment by Sushil.Joshi on October 16, 2013 at 9:05pm

वाह.... बहुत खूब...... सभी शेर पसंद आए गज़ल के..... बाकी शिल्प के विषय में भाई अरुन ने बताया ही है..... बधाई इस अनुपम कृति के लिए डॉ. ललित मोहन जी....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 16, 2013 at 7:02pm

आदरणीय ललित मोहन भाई , बेहतरीन गज़ल कही है वाह !! भाई हार्दिक बधाई स्वीकारें !!

 

Comment by shashi purwar on October 16, 2013 at 4:57pm

waah bahut khoob kya baat hai .

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 16, 2013 at 12:52pm

आदरणीय बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर पसंद आये शेर नंबर पांच में तदाबुले रदीफ़ का दोष है एक बार देख लें इस सुन्दर प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 16, 2013 at 11:49am

बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है डॉ साहब .. बधाई स्वीकार करें 

कृपया ध्यान दे...

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