एक आसमान को छूता
पहाड़ सा / दरक जाता है
मेरे भीतर कहीं ..
घाटियों में भारी भरकम चट्टानें
पलक झपकते
मेरे संपूर्ण अस्तित्व को
कुचल कर
गोफन से छूटे / पत्थर की तरह
गूँज जाती हैं.
संज्ञाहीन / संवेदनाहीन
मेरे कंठ को चीर कर
निकलती मेरी चीखें
मेरे खुद के कान / सुन नहीं पाते
मैं देखता हूँ
मेरे भीतर खौलता हुआ लावा
मेरे खून को / जमा देता है
जब तुम न्याय के सिंहासन पर बैठ कर
सच की गर्दन मरोड़कर
देखते देखते निगल जाते हो
और फिर / दुर्गन्ध युक्त झूठ का / वमन करते हो
न्याय को शिखंडी बना कर
वध करते हो विश्वास का
जब मेरे शब्द
तुम्हारे लिए अर्थहीन हो जाते हैं
तब उनके हिंसक होने को
कब तक रोकेगा मेरा विवेक ?
मत थमाओ
बारूद / निरपराध के हाथों
जिस धरती पर
शीश नवाने से
मंदिर के पत्थर भी
न्याय करते हों
वहाँ तुम्हारी / जड़ व विकृत
संवेदनाओं के लिए
कितनी और बलि देनी होंगी ?
जानते हो ?
दहकता सूरज भी /
अंतिम छोर नहीं है ... ब्रह्माण्ड का ....
.
....ललित मोहन पन्त
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
डॉ. ललित मोहन पंतजी, आपकी पंक्तियों पर विलम्ब से आ पा रहा हूँ इसकी ग्लानि तो है. लेकिन ग्लानि के भाव और सान्द्र हो गए जब आपकी प्रस्तुत रचना से गुजर चुका हूँ.
यह रचना आपके रचनाकर्म की गहनता को तो साझा करती ही है, आपकी वैचारिक कहन और उसके संप्रेषण के प्रति आश्वस्त भी करती है.
जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वह है इस रचना की गहन संप्रेषणीयता, रचना का सार्थक विन्यास और प्रयुक्त शब्दों का सटीक प्रयोग.
प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से आपके कवि ने आमजनों की पारिस्थिक विवशता और फिर झुंझलाहट को कितने तीव्रता से साझा किया है ! --
जिस धरती पर
शीश नवाने से
मंदिर के पत्थर भी
न्याय करते हों
वहाँ तुम्हारी / जड़ व विकृत
संवेदनाओं के लिए
कितनी और बलि देनी होंगी ?
यदि यह सुझाव है तो सुझाव सही अन्यथा मैं तो इसे उद्विग्न चेतावनी ही कहूँगा -
जानते हो ?
दहकता सूरज भी /
अंतिम छोर नहीं है ... ब्रह्माण्ड का ...
प्रस्तुत कविता ने आपकी रचनधर्मिता के सबल पक्ष को समक्ष किया है. मन मुग्ध तो है ही, संतुष्ट भी है.
मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें, आदरणीय.
शुभ-शुभ
उत्साहवर्धन के लिए आभार Sushil.Joshi जी। …
बहुत बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय डॉ. ललित मोहन जी.....बधाई स्वीकारें....
आदरणीया Dr.Prachi Singh जी एवं आदरणीय बृजेश नीरज जी आप की विद्वत प्रतिक्रियाओं का आभार … मेरी बात आप तक पहुँची यह अनुभूति कविता को सार्थक कर गई ….
आदरणीय डॉ० ललित मोहन पन्त जी
बहुत गूढ़ चिंतन विवेचन (self dialogue) के बाद अंतर की जिस पीढ़ा को सुगढ़ बिम्ब प्रयुक्त करते हुए व्यक्त किया है... मैं वाकई दंग हूँ इस प्रस्तुति पर..
और अंत में अहंकार को चेतावनी देती प्रखर आवाज ...
दहकता सूरज भी /
अंतिम छोर नहीं है ... ब्रह्माण्ड का ....
बहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति
हार्दिक बधाई
बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय Kewal Prasad जी ,धन्यवाद आपके सराहना के लिये ….
......क्या कहने? वाह....गजब, बहुत खूबं। इस रचना के लिए हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। आदरणीय ललित मोहन भार्इजी, सादर,
आदरणीय पन्त जी ..भावमय इस रचना के लिए हार्दिक बधाई
न्याय को शिखंडी बना कर
वध करते हो विश्वास का
गज़ब की रचना आदरणीय पन्त साहब
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