ग़ज़ल -
२१२ २१२ २१२ २१२
वक़्त बदला, हैं बदले ख़यालात से
रौंदता ही रहा हमको लम्हात से .
क्यों मयस्सर नहीं जिंदगी में सुकूँ
जूझता ही रहा मैं तो हालात से .
माँगता था दुआ में तिरी रहमतें
उलझनें सौंप दी तूने इफरात से .
जुर्रतें वक़्त की कम हुईं हैं कहाँ
खेलती ही रहीं मेरे जज़्बात से.
तू बरस कर कहीं भूल जाये न फिर
भीगता ही रहा पहली बरसात से.
बात शायद कभी ख़त्म होगी नहीं
बात निकली वही बात ही बात से.
"मौलिक व अप्रकाशित"
-ललित मोहन पन्त
01 . 56 रात
16. 10 . 2013
Comment
शुक्रिया वीनस केसरीजी Saurabh Pandeyजी और आपकी नसीहतों और जर्रा नवाजी का ,coontee mukerji जी शुक्रिया आपकी दाद का
बात शायद कभी ख़त्म होगी नहीं
बात निकली वही बात ही बात से.......वाह!
अब्र जब आस्माँ पे बिफरने लगा
भीगता ही रहा पहली बरसात से.
तकाबुले रदीफ़ का दोष दूर करने की कोशिश की है ….
आदरणी ललितमोहन जी, आपकी पहली ग़ज़ल में डूब गया था. यह प्रयास भी अच्छा हुआ है लेकिन कुछ है जो पूरा भर नहीं रहा.
दूसरे,
माँगता था दुआ में तिरी रहमतें .. इस मिसरे में ऐबे तनाफ़ुर बन रहा प्रतीत हो रहा है. कृपया संतुष्ट हो लें.
सादर
आदरणीय ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें
ग़ज़ल के चंद अशआर मुतासिर कर गए
लिखने के लिए कैसे के साथ क्यों पर भी विचार करें ... मैं समझ नहीं सका कि कुछ अशआर क्यों कहे... उनसे क्या आशय स्पष्ट हो रहा है ... और उस आशय की क्या आवश्यकता है ?
कहते रहने के लिए कहना कितना उचित है !!!!
शुक्रिया Baidya Nath 'सारथी' जी।
पठनीय ग़ज़ल .... बढ़िया अशआर ! बधाई जनाब :)
shukriya बृजेश नीरज ji
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!
arun kumar nigamji Sushil.Joshi ji गिरिराज भंडारी जी अरुन शर्मा 'अनन्त' जी Nilesh Shevgaonkar जी आप सभी का शुक्रिया … आपने मेरी कोशिश को तवज्जो दी और नवाजा . तदाबुले रदीफ़ का दोष मैंने जानने की कोशिश की पर मुझे नहीं मिला। क्या आप मुझे समझने में मदद कर सकेंगे ?एहसान होगा।
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