दर्द को क्यों आज मेरी याद आई है
हो रही मद्धम सफ़ों की रोशनाई है।
मुद्दत हुई जो तड़प हम भूल बैठे थे
वो ग़ज़ल फिरआज दिल ने गुनगुनाई है ?
आजमाता ही रहा मौला मुझे हर वक़्त
खूब किस्मत है गज़ब की आशनाई है।
माना जर्रा भी नहीं हम कायनात के
तेरे दर तक हर सड़क हमने बनाई है।
मेरे सूने से मकाँ में मेहमान बन के आ
बियाबाँ में बहारों की बज़्म सजाई है ।
दरिया के किनारों सा चलता रहा सफ़र
इस ओर ख्वाहिशें हैं उस ओर खुदाई है।
-ललित मोहन पन्त
12. 52 दोपहर
20 .08 .2013
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
भाई, ज़िग़र और गुर्दे तो ज़रूर चाहिये होते हैं ..लेकिन अब इतने भी बड़े नहीं कि पेट हरदम फूला हुआ दिखाई दे. उसका ढोना फिर मुश्किल हो जाता है. . :-))))))))
Saurabh Pandey जी ,अच्छा हुआ आपने जिगरे और गुर्दोँ की याद दिला दी वो तो इतने बड़े हैं क़ि मुश्किल से सम्भलते हैं ….
आदरणीय ललितजी, इस मंच के सदस्य उस्ताद के पीछे नहीं भाग कर आपस में सीखते हैं. बशर्ते कोई वाकई सीखने का ज़िगरा रखता हो और महनतके लिए गुर्दा रखता हो.
ग़ज़ल पर बहुत कुछ उपलब्ध है यहाँ. आप आगे तो बढ़ें.
आदरणीय ललित मोहन जी कहीं दिल के कोने से आपने बात कह दी . रचना अच्छी लगी
मुद्दत हुई जो तड़प हम भूल बैठे थे
वो ग़ज़ल फिरआज दिल ने गुनगुनाई है ?
गज़ल लिखने की बहुत सुन्दर कोशिश है आ० डॉ० ललित मोहन पन्त जी
गज़ल लिखते हुए बहर को भी साथ में ज़रूर लिखा दिया करें पाठक को समझने में आसानी होती है
इस सद् प्रयास के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ
सुन्दर प्रयास है-
दर्द को क्यों आज मेरी याद आई है
हो रही मद्धम सफ़ों की रोशनाई है।
मुद्दत हुई जो तड़प हम भूल बैठे थे
वो ग़ज़ल फिरआज दिल ने गुनगुनाई है ?
-बधाई!
Abhinav Arun जी सीखने की कोशिश में हूँ उस्ताद ढूंढ रहा हूँ कोई मेरे लिखे का इस्लहा कर मुझे रास्ता दिखा दे …. मुश्किल लगता है फिर हार जाता हूँ तो लगता है जैसा है वैसा ही सही …मेरे लिये तो यह रिल़ेक्ष होने का एक ही जरिया है …. कोशिश करते करते लगता है मैं भी सीख जाऊँगा एक दिन … ऐसे ही इंगित करते रहेंगे तो आभार होगा। …
जितेन्द्र 'गीत' जी तारीफ और और रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया ….
SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR आपकी हौसला अफजाई का शुक्रिया …
भाव और उदगार अच्छे हैं। ग़ज़ल की तकनीक की जानकारी अपेक्षित है ।
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