बादलों से ढँका
नीला नही काला आकाश,
उचाईयों को मापता
उन्मुक्त पंछी,
चट्टान की ओट मे
फाँसने को आतुर बहेलिया,
आहा ! इधर ही आ रहा मूर्ख
फँसेगा, ज़रूर फँसेगा,
ओह ! बच गया,
शायद भांप गया ।
पुनः पेड़ की ओट मे,
वाह ! इधर ही आ रहा दुष्ट
आएगा इस बार
इस तीर की ज़द मे,
उफ्फ ! बच गया
बड़ा चालाक है
खैर, कब तक ।
हरे काले सफेद
रंगो से पुता
आवरण युक्त चेहरा
झाड़ियों के मध्य समाहित
दम साधे बहेलिया,
सनसनाता तीर
आ गिरा ज़मीन पर
शातिर कही का !
बादलों से मुक्त हुआ आकाश
और साथ मे
आवरण विहीन चेहरा भी |
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट =>लघुकथा : गिफ्ट
Comment
क्या खूब चित्र खींचा है. आपकी लघुकथा की तरह ही प्रभावकारी. लग रहा है लघुकथा और कविता की मिलन स्थली है यह रचना.
रचना पसंद करने हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी ।
आदरणीया गीतिका वेदिका जी, आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धन करती प्रतीत हुई, बहुत बहुत आभार ।
आदरणीया आपकी टिप्पणी बहुत ही सबल प्रदान करती है, बहुत बहुत आभार ।
सराहना हेतु आभार आदरणीय श्याम बिहारी वर्मा जी ।
बहुत ही उत्तम भाव . कविता के माध्यम मानो एक चित्र खिच दिया हो . पबेहतरीन प्रस्तुतिकरण ..
आँखों के सम्मुख एक चित्र सा साकार करती हुई ये रचना,कमजोर पर निर्ममता की जीत कहाँ नहीं? कितने प्यारे होते हैं प्राण किन्तु हर कोशिश के बावजूद काल से बच नहीं पाते ,काल चाहे बहेलिये के रूप में ही आये...
बहुत बहुत बधाई आदरणीय गणेश जी
बहुत दिन बाद आपकी कविता पढ़ने को मिली आदरणीय, अच्छा प्रतीत हुआ!
हरे काले सफेद रंगो से पुता
आवरण युक्त चेहरा
झाड़ियों के मध्य समाहित
दम साधे बहेलिया, .....मुखौटा लगाए शिकार करते हुये शिकारी से साक्षात्कार करवा दिया आपने तो|
बधाई !!
अगर देखें तो यह रचना दोहरा अर्थ रखता है.बागी जी, आपकी लघुकथा की तरह मुखर.
सादर
कुंती.
भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.... |
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