बादलों से ढँका
नीला नही काला आकाश,
उचाईयों को मापता
उन्मुक्त पंछी,
चट्टान की ओट मे
फाँसने को आतुर बहेलिया,
आहा ! इधर ही आ रहा मूर्ख
फँसेगा, ज़रूर फँसेगा,
ओह ! बच गया,
शायद भांप गया ।
पुनः पेड़ की ओट मे,
वाह ! इधर ही आ रहा दुष्ट
आएगा इस बार
इस तीर की ज़द मे,
उफ्फ ! बच गया
बड़ा चालाक है
खैर, कब तक ।
हरे काले सफेद
रंगो से पुता
आवरण युक्त चेहरा
झाड़ियों के मध्य समाहित
दम साधे बहेलिया,
सनसनाता तीर
आ गिरा ज़मीन पर
शातिर कही का !
बादलों से मुक्त हुआ आकाश
और साथ मे
आवरण विहीन चेहरा भी |
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
उत्साहवर्धन करती टिप्पणी हेतु दिल से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय अरुण निगम जी ।
आभार आदरणीय जीतेन्द्र गीत जी ।
आदरणीय सौरभ भईया जी, यह तुच्छ प्रयास आपको अच्छा लगा यही मेरे लिए बहुत है, ह्रदय से आभार प्रेषित है ।
उत्साह्वार्धित करती टिप्पणी हेतु ह्रदय से आभार आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी ।
धन्यवाद ज्ञापित है वीनस जी ।
सराहना हेतु आभार आदरणीय सुशिल जोशी जी ।
//वास्तव में शातिर शब्द बहेलिये की हतप्रभता को बयां करता है। क्योंकि पंछी तो शातिर हो ही नही सकता।//
आदरणीय केवल भाई जी, आपके अन्दर के पाठक को नमन है, आपकी टिप्पणी वाकई उत्साहवर्धन करती है, बहुत बहुत आभार ।
आदरणीय गणेश जी, शायद आपकी अतुकांत रचना पहली बार देख रहा हूँ, पंक्तियों के साथ चित्र उभरते रहे हैं, बधाई स्वीकार कीजिये.
सुंदर भावनात्मक रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीय गणेश जी
वाह ! भाई गणेशजी, पहली तो यही बधाई कि आपकी काव्य-रचना बहुत दिनों बाद आयी है. ऊसर का नाश हुआ और फूल खिले, गुलशन हुआ ! आपकी इस सकारात्मक प्रयास से मन प्रसन्न है.
प्रस्तुत अतुकान्त रचना वैचारिक स्तर की रचना है. इसमें तार्किकता और भावना का सुगढ समायोजन उतना ही चाहिये ताकि संतुलन से रचना का तथ्य स्वीकृत हो सके.
बहेलिया वस्तुतः शातिर नहीं होता, निर्दयी भले होले. आखेट उसका पेशा होता है, वह आखेटक होता है. और पक्षी से उसका सम्बन्ध क्रमशः भोग्या और भोगी का होता है. उस हिसाब से वह किसी पक्षी को किसी प्रतिकार या द्वेष से नहीं पकड़ता या मारता. वह उससे अपना परिवार पालता है. अतः वह जालबद्ध पक्षी के प्रति मूर्ख या बच निकले के प्रति चालाक आदि शब्द भले प्रयुक्त करे, दुष्ट जैसे क्रोधावेशित या ऐसे ही शब्द प्रयुक्त नहीं करता या करेगा.
फिर, प्रस्तुत वैचारिक रचना पर भाई केवल प्रसाद जी ने बहुत सटीक विन्दु साझा किया है. पक्षी शातिर न होगा. तो उसी तरह बहेलिया भी शातिर नहीं हो सकता. कारण मैं ऊपर ही कह चुका हूँ कि निर्दयी होना एक बात है और शातिर होना अलहदी बात. अतः रचना प्रस्तुति के क्रम में ऐसे आग्रही और उत्कट भाव उबाल भले लेलें, सान्द्र हो लें, भले छलक लें, पक्षी और बहेलिया के बिम्ब को संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं.
वैसे यह मेरी समझ है. आवश्यक नहीं कि मान्य ही हो.
वैसे कई विद्वानों ने रचना की खुल कर प्रशंसा कर दी है तो मैं अपने इन विचारों को सादर ही निवेदित कर रहा हूँ.
वैसे, आपको पुनः बधाई कि रचनाकर्म के क्रम में काव्य-रचना का गैप बन रहा था, समाप्त हुआ.
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.
शुभ-शुभ
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