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गुलाब और स्वतंत्रता

समतल उर्वर भूमि पर

उग आयी स्वतंत्रता

जंगली वृक्ष की भांति

आवृत कर लिया इसे

जहर बेल की लताओं ने

खो गयी इसकी मूल पहचान

अर्थहीन हो गए इसके होने के मायने .

..

गुलाब की पौध में,

नियमित काट छांट के आभाव में

निकल आती हैं जंगली शाख.

इनमे फूल नहीं खिलते

उगते हैं सिर्फ कांटे.

लोकतंत्र होता है गुलाब की तरह ...

… नीरज कुमार ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on October 23, 2013 at 6:42pm

क्या बात कह दी आपने आ0 अरुण जी बहुत बढ़िया , बधाई आपको इस रचना हेतु । 

Comment by विजय मिश्र on October 23, 2013 at 4:36pm
बहुत बारीकी से आजादी और जम्हूरियत के माएने रखे , गुलाब ही नहीं बहुत पौधे इस तरह के हैं जिनमें ऐसी साखें निकल आतीं हैं जो बाँझ ही रहतीं हैं ,न फुल न फल ,कुछ भी नहीं देतीं . इन्हें हम ' अकड़ब ' की संज्ञा देते हैं .सुंदर रचना नीरजजी . बधाई .
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 23, 2013 at 4:27pm

 भाव् पूर्ण सुंदर रचना बधाई नीरज भाई। ....अभाव ..  शाखें ...... कर लीजिये।  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 23, 2013 at 2:03pm

आदरणीय नीरज भाई , स्वतंत्रता और लोक तंत्र दोनो को बहुत खूबसूरती से परिभाषित कर रही है आपकी अतुकांत रचना !!! बधाई !!!!

Comment by coontee mukerji on October 23, 2013 at 1:48pm

गुलाब की पौध में,

नियमित काट छांट के आभाव में

निकल आती हैं जंगली शाख.

इनमे फूल नहीं खिलते

उगते हैं सिर्फ कांटे.

लोकतंत्र होता है गुलाब की तरह.......बहुत सुंदर प्रस्तुति.आदरणीय.

शुभ कामनाएँ सहित.

कुंती.

Comment by savita agarwal on October 23, 2013 at 1:12pm
Bahut khub
Comment by अरुन 'अनन्त' on October 23, 2013 at 12:45pm

आदरणीय नीरज भाई जी वाह अंतिम पंक्तियाँ एकाएक अपनी ओर खीचती है. बहुत ही सुन्दर अतुकांत रचना बहुत बहुत बधाई स्वीकारें

इनमे फूल नहीं खिलते

उगते हैं सिर्फ कांटे.

लोकतंत्र होता है गुलाब की तरह .. वाह भाई वाह

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