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!!! नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से !!!

!!! नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से !!!
दुर्मिल सवैया - (आठ सगण-112)

तन श्वेत सुवस्त्र सजे संवरें, शिख केश सुगंध सुतैल लसे।
कटि भाल सुचन्दन लेप रहे, रज केसर मस्तक भान हसे।।
हर कर्म कुकर्म करे निश में, दिन में अबला पर ज्ञान कसे।
नित धर्म सुग्रन्थ रचे तप से, मन से अति नीच सुयोग डसे।।

के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 23, 2013 at 6:44pm

आदरणीय भण्डारी भार्इ जी, आपके अपार स्नेह और छन्द अनुमोदन से मेरा आत्मबल बढ़ा है। आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 23, 2013 at 6:40pm

आदरणीय अरून अनन्त भार्इ जी, आपके अपार स्नेह और छन्द अनुमोदन से मेरा प्रयास सार्थक हुआ। आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,

Comment by annapurna bajpai on October 23, 2013 at 6:36pm

आ0 केवल भाई जी बहुत ही प्रभाव पूर्ण दुर्मिल सवैया की रचना हेतु बहुत बधाई । 

Comment by राजेश 'मृदु' on October 23, 2013 at 5:09pm

जय हो मित्रवर, बहुत सुंदर प्रस्‍तुति और कटाक्ष भी

Comment by विजय मिश्र on October 23, 2013 at 4:22pm
सारगर्भित ,उचित आशय और सुंदर विधा में . हार्दिक बधाई केवलजी .
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 23, 2013 at 4:07pm

दुर्मिल सवैया सुंदर लिखते हैं केवल भाई बधाई । भाव पूर्ण और लय में पढ़ने का मज़ा। 

Comment by ram shiromani pathak on October 23, 2013 at 4:04pm

वाह बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय केवल भाई।हर्दिक बधाई आपको //


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 23, 2013 at 2:07pm

आदरणीय केवल भाई , बहुत सुन्दर सवैया की रचना हुई है !!!! वर्तमान की स्थिति को बहुत अच्छे से बयान कर रही है !!!! आपको बहुत बहुत बधाई !!!!!!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 23, 2013 at 1:14pm

आदरणीय केवल भाई जी वाह आनंद आ गया अत्यंत सुन्दर सवैया रचा है आपने खास कर इस पंक्ति पर विशेषतौर से बधाई स्वीकारें.

हर कर्म कुकर्म करे निश में, दिन में अबला पर ज्ञान कसे। वाह भाई वाह लाजवाब

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