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माँ अभी तक काम से नहीं लौटी थी ।आठ साल कि बिरजू , दरवाजे पर बैठी, सामने आकाश में छूटती रंग- बिरंगी आतिशबाजी को मुग्ध भाव से देख रही थी । जिधर नज़र जाती दूर तक दीपों , मोमबत्तियों और बिजली की झालरों की कतारें दिखाई पड़ती थीं । अचानक बिरजू के दिमाग में एक विचार कौंधा। वह उठीं । अपने जमा किये पांच रुपये निकाले और दूकान से कुछ दीये खरीद लायी । झोपड़ी के कोने में बने चूल्हे के पास में रखी बोतल से सरसों का तेल निकाल कर उसने सारे दीयों में भर दिया । खाली बोतल वहीँ छोड़ कर उसने दियासलाई उठाई । तेल भरे दीयों को झोपड़ी की दीवार पर सजा कर, दियासलाई से एक- एक कर के जला दिया । दीयों की रौशनी से झोपड़ी जगमगा उठी । बिरजू मुग्ध सी अपनी झोपड़ी - अपने घर को निहारने लगी । इस समय न उसे आकाश में छूटती रंग- बिरंगी आतिशबाजी याद थी, न ही वह अपनी माँ का इंतज़ार कर रही थी । वह तो सिर्फ अपने घर को मंत्र मुग्ध सी देख रही थी -
" क्या यह इतना सुंदर घर मेरा है ?"

माँ ने दीपों से जगमगाती अपनी झोपड़ी को दूर से देख लिया था । वह तेज कदमो से झोपड़ी कि ओऱ बढ़ी । बिरजू माँ को देख कर ख़ुशी से उछलने लगी-
" देखो माँ !! अपना घर कितना सुंदर लग रहा है ।"
" ये दीये तू कहाँ से लाई ?"
" किसना कि दुकान से, माँ । "
" तेल कहाँ से मिला ?"
"माँ , जो शीशी में था न , चूल्हे के पास ......."
' तड़ाक ', एक जोरदार तमाचा बिरजू के गाल पर पड़ा ।
" कलमुँही , अब साग कैसे बनेगा ? " एक तमाचा और पड़ा बिरजू के गाल पर । माँ ने फूंक फूक कर सारे दीये बुझा दिए। ' करमजली , दीवाली मनाएगी ' दीयों का बचा - खुचा तेल फिर से बोतल में उलटते हुए माँ रो पड़ी । आकाश में रंग -बिरंगी आतिशबाजियां अब भी छूट रही हैं मगर बिरजू सुबकते - सुबकते सो चुकी है ।

मौलिक एवं अप्रकाशित
अरविन्द भटनागर'शेखर '

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 1, 2013 at 7:45pm

सुंदर  मार्मिक रचना । बधाई अरविंद भाई।

Comment by विजय मिश्र on November 1, 2013 at 5:49pm

यह दिवाली का वह पहलू है जो हमारे समाज के माथे पर किसी बिधवा के माँग का टुटा हुआ टीका है ,बिखरा हुआ सिंदूर है .जिसे ईश्वर की कौन सी दया कब आकर सम्भालेगी ,पता नहीं .अभी तो बुझे दिल से यही प्रार्थना करनी चाहिए हमें कि वह दिन जल्द आये जब किसी माँ को अपनी बच्ची की खुशी अपने पेट के कारण विवश होकर छिनना न पड़े . छोटी सी कथा ने बारीकी से हमारे समाजिक चरित्र को उधेड़ने की चेष्टा की है . आपकी दृष्टि को वन्दन .

Comment by Ravi Prabhakar on November 1, 2013 at 10:07am

आर्थिक असमनाताओं पर एकदम स्‍टीक कटाक्ष्‍ा करती आपकी लघु कथा वाकई में दिल को छू गई और साथ भी बालमन का भोलापन भी बाखूबी पेश किया गया  शुभकामनाएं स्‍वीकार करें

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 1, 2013 at 8:01am

सच! अति मार्मिक, आँखे नम हो गई, कहीं है तो बहुत है, कहीं बिलकुल नहीं.., हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय अरविन्द जी

Comment by vandana on November 1, 2013 at 6:56am

मार्मिक अत्यंत मार्मिक !!!! खासतौर पर तब जब कि  शहर में चारों ओर हफ्ते भर पहले से रोशनी के झरने जैसी लाइटें झिलमिला रही हैं 

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