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मृत्यु सुंदरी ब्याह करोगी ? ( अरुण कुमार निगम)

मृत्यु सुंदरी ब्याह करोगी ?

गीत मेरे सुन वाह करोगी ?

सुख- दु:ख की आपाधापी ने, रात-दिवस है खूब छकाया  

जीवन के संग रहा खेलता , प्रणय निवेदन कर ना पाया

क्या जीवन से डाह करोगी ?

कब आया अपनी इच्छा से,फिर जाने का क्या मनचीता

काल-चक्र  कब  मेरे बस में , कौन  भला है इससे जीता

अब मुझसे क्या चाह करोगी ?

श्वेत श्याम रतनार दृगों में , श्वेत पुतलियाँ  हैं एकाकी  

काले कुंतल  श्वेत हो गए , सिर्फ झुर्रियाँ तन पर बाकी

क्या इनको फिर स्याह करोगी ?

आते-जाते जल-घट घूँघट , कब पनघट ने प्यास बुझाई

स्वप्न-पुष्प की झरी पाँखुरी, मरघट ही अंतिम सच्चाई  

अंतिम क्षण, निर्वाह करोगी ?

अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on November 14, 2013 at 7:37pm

....अहा क्या  कहने आ. अरुण निगम जी ..ताज़ा खुशबूदार हवा के झोंके के समान रचना ...लाजवाब भाव और प्रवाह .. इसे आपके श्री मुख से सुनने का सौभाग्य मिलेगा ऐसी आशा है ...हार्दिक हार्दिक बधाई इस सुन्दर मंत्रमुग्ध करने में समर्थ सृजन पर !! वाग्देवी की कृपा है , बनी रहे !!!

Comment by Neeraj Neer on November 14, 2013 at 9:36am

इस पर तो मृत्यु सुंदरी भी जरूर वाह वाह करेगी .. सुंदर रचना  ..

Comment by Sushil.Joshi on November 14, 2013 at 5:06am

वाह वाह बहुत ही सुंदर गीत रचना हुई है आ0 अरुण कुमार जी... जीवन के सत्य को उभारता हुआ यह गीत.......

श्वेत श्याम रतनार दृगों में , श्वेत पुतलियाँ  हैं एकाकी  

काले कुंतल  श्वेत हो गए , सिर्फ झुर्रियाँ तन पर बाकी

क्या इनको फिर स्याह करोगी ?...... बहुत सुंदर...

आते-जाते जल-घट घूँघट , कब पनघट ने प्यास बुझाई

स्वप्न-पुष्प की झरी पाँखुरी, मरघट ही अंतिम सच्चाई  

अंतिम क्षण, निर्वाह करोगी ?.............. वाह कितना सार्थक अंत किया है गीत का....... इस शानदार प्रस्तुति हेतु ह्रदयतल से बधाई,,,,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 14, 2013 at 12:59am

अह्हाह ! वाह वाह ..

एक सुन्दर भावपगी रचना के लिए हृदय से बधाई, आदरणीय.

एक समय ऐसे विचार संभवतः अधिकांश को आलोड़ित करते हैं. और वो झनझनाहट गीत का रूप धर लेती है.  

तभी तो ऐसे गीत फूट पड़े थे -

रहे मौन अधर

कुछ किन्तु कहूँगा

प्रभात की शुभ-नव वेला तक.. सुन, तेरी मैं राह तकूँगा... .

मुझे अपने वो दिन याद क्या आये, मन झूम गया.

पुनः सादर बधाइयाँ

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 14, 2013 at 12:31am

बिल्कुल नई चीज को नये भाव के साथ पढ़ने का एक अलग ही आनंद है । हम सठियाये( साठ से ऊपर के )  लोगों का आपने विशेष ख्याल  किया है, मज़ा आ गया । हार्दिक बधाई अरुण भाई ।

Comment by बृजेश नीरज on November 13, 2013 at 11:37pm

वाह, वाह! अति सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 13, 2013 at 7:48pm

श्वेत  वस्त्र पहनाकर  मुझको  जग ने कितने  फूल चढ़ाये 

लकड़ी चन्दन  धूप  शर्करा शत शत घृत घट  से नहलाये

क्या तुम मेरा दाह करोगी  I  

उफ्फ्फ बाकी  कसर आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण जी ने पूरी कर दी दिल को चीरती हुई जाती हैं ये पंक्तियाँ..... 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 13, 2013 at 7:45pm

वाह्ह्ह्ह इस रचना पर क्या कहूँ निःशब्द हूँ शीर्षक और रचना पढ़कर ही अन्दर तक एक झुरझुरी सी दौड़ गई ---

आते-जाते जल-घट घूँघट , कब पनघट ने प्यास बुझाई

स्वप्न-पुष्प की झरी पाँखुरी, मरघट ही अंतिम सच्चाई  

अंतिम क्षण, निर्वाह करोगी ?----अंतिम सच्चाई में अंतिम इच्छा ग़ज़ब बहुत होंसला चाहिए ,इस अनूठी रचना हेतु बारम्बार बधाई आपको अरुण निगम जी 

Comment by Meena Pathak on November 13, 2013 at 5:12pm

बहुत सुन्दर | बधाई आप को | सादर 

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 13, 2013 at 1:11pm

वाह वाह वाह आदरणीय गुरुदेव श्री क्या कहूँ कहने के लिए शब्दों की जरुरत होती है ऐसा सुन्दर गीत सीधे सीधे ह्रदय में घर कर गया. एक एक पंक्ति बार बार कई कई बार पढ़ गया आनंद हर बार बढता चल गया. हृदयतल से भर भर के ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें.

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