पूछे कौन गरीब को, धनिकों की जयकार .
धन के माथे पर मुकुट, और गले में हार ..
और गले में हार , लुटाती दुनिया मोती .
आवभगत हर बार, अगर धन हो तब होती .
'ठकुरेला' कविराय , बिना धन नाते छूछे .
धन की ही मनुहार,बिना धन जग कब पूछे .
जनता उसकी ही हुई , जिसके सिर पर ताज.
या फिर उसकी हो सकी ,जो हल करता काज ..
जो हल करता काज,समय असमय सुधि लेता.
सुनता मन की बात , जरूरत पर कुछ देता .
'ठकुरेला' कविराय ,वही मनमोहन बनता .
जिसने बांटा प्यार , हुई उसकी ही जनता .
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
अदरणीय त्रिलोक सिंह ठकुरेला साहब, आपका इस मंच पर हार्दिक स्वागत है. आपकी उपस्थिति से पाठकगण और रचनाकार सभी लाभान्वित होंगे.
प्रस्तुत दोनों छंद कथ्य और शिल्प दोनों की दृष्टि से उन्नत और समर्थ हैं.
हृदय से धन्यवाद और शुभकामनाएँ
सादर
आपकी कुण्ड्लिया अच्छी लगी। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आज के समय के सत्य को उजागर करते ..
कथ्य शिल्प पर अनुशासित बहुत सुन्दर कुण्डलिया छंद
हार्दिक बधाई आदरणीय
आपको इस मंच पर देखकर बहुत ही अच्छा लगा । आपकी कुंडलियों पर पर टिप्पणी करने की सामर्थ्य नहीं, बस वाह-वाह कर सकता हूं, सादर
गुरुदेव स्वागत है आपका इस मंच पर
हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति के लिए
आदरनीय त्रिलोक भाई , वर्तमान स्थिति पर लाजवाब कुंडलिया रचना की है आपने !!!! आपको हार्दिक बधाई !!!!
आदरणीय ठुकरेला जी दोनों ही कुण्डलिया छंद में आपने यथार्थ का सुन्दर चित्रण किया है, दोनों ही कुण्डलिया छंद बेहतरीन हैं मेरी ओर से बधाई स्वीकारें.
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