दिव्य अलोकिक सी
उतर रही
क्षितज से
नीचे की ओर
त्रण से छीन लेती है
ओस का प्याला
और वह
अवाक
मूक मुँह बाए
देखता है
उस देवी को जो
मद-मस्त हो जाती है
कलि कलि मुस्काती है
पुष्प खिल उठते हैं
बागों के
पोखरों के
ह्रदय के
उसके दर्शन पा
भर लेती है वो
अपनी बाहों में
अलसाए से
विहंगों को
प्रकृति के कण कण को
और देती है उर्जा
स्नेह की गर्मीं से
करती है पल्लवित
कुछ दिवास्वप्न
जिनमें से कुछ होंगे
पूर्ण
कुछ अपूर्ण भी
नदियों की कल कल
पंछियों का कलरव
और चहल पहल
ही उसकी पहचान है
उसके अभिनन्दन में
बजती हैं मंदिरों की घंटियाँ
होता है मस्जिदों में आलाप
और गुरुद्वारों में सजदे
कभी वो माँ बने
पुचकारती है
कभी प्रेयसी सी
मादक हो जाती है
कवियों को
उकसाती सी
करो मेरा सौन्दर्य वर्णन
करो मेरी ममता का बखान
कलम स्तब्ध सी
उस आंदोलित मौन को
देती है शब्द
जिसमें वह कह नहीं
पाती उस चिरपरिचित मौन को
जो उल्लुओं को मौन करता है
और कोयलों को स्वर देता है
थक के हार के
बस
नतमस्तक हो
कहती है
हे! “भोर”
तुम अनंत हो
तुम हो तो मैं हूँ
वरना काल के गाल में
समाया
समय
संदीप पटेल "दीप"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई जी बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई आपको। …… सादर
सुबह का एक खूबसूरत वर्णन वाह बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय संदीपजी
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