गूंजती थी जब खमोशी, हादसे होते रहे |
रात जागी थी जहां पर दिन वहीँ सोते रहे ||
अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर
अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||
कौंध कर बिजली गिरी वसुधा दिवाकर भी डरा,
कुंध तनमन क्रोध संकर बीज हम बोते रहे ||
भावना विचलित हुई जब चीर नैनो से हटा,
चार अश्रु गिर धरा पर माटी में खोते रहे ||
पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,
हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे ||
गुम गए फिर शब्द सारे बह गए नद नीर में,
तब जनाजे का उठा छः गज कफ़न ढोते रहे ||
अब नजर आती नहीं है, घुप अँधेरे में किरण,
बैठकर तनहा हमी, हँसते रहे रोते रहे ||
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
बहुत सुंदर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई
.
चार अश्रु गिर धरा पर माटी में खोते रहे ||.. इस मिसरे में तनिक लय भंग प्रतीत हो रही है ... हो सकता है मै गलत होऊं
सुंदर रचना के लिए पुन: बधाई
आदरणीय बागी जी सादर प्रणाम, आपको रचना अच्छी लगी मेरा रचना कर्म सार्थक हुआ. हार्दिक आभार .
भाई राम पाठक जी, भाई शिज्जू शकूर जी रचना पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार.
//पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,
हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे //
वाह आदरणीय रक्ताले साहब, अच्छा शेर है, ग़ज़ल बहुत ही अच्छी लगी, बहुत बहुत बधाई ।
आदरणीय अशोक रक्ताले जी सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई आपको। ……
आदरणीय अशोक रक्ताले सर बेहतरीन रचना है वाह दिली दाद कुबूल करें
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