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ग़ज़ल : क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

 

इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है

क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है

 

इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी

धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है

 

हैं लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे

हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है

 

हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ

कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है

 

रिश्ते बबूल बनके चुभते हैं जिंदगी भर

शर्मोहया की जब भी दीवार टूटती है

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:05pm

Nilesh Shevgaonkar जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 21, 2013 at 5:20pm

वाह  वाह !!! धर्मेन्द्र भाई , बहुत खूब सूरत गज़ल कही है !!!! हार्दिक बधाई !!!!

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 21, 2013 at 3:41pm

वाह वाह सर जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने सादर बधाई स्वीकारिये

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 21, 2013 at 1:07pm

उम्दा ग़ज़ल है  i  शर्मो हया  कि जब भी दीवार टूटती है  i

शुभ शुभ  i

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 21, 2013 at 12:33pm

हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ

कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती ..आदरणीय धर्मेन्द्र जी आपके इस ग़ज़ल का ये शेर दिल को छू गया ..सादर बधाई 

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 21, 2013 at 11:04am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल बधाई स्वीकारें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 21, 2013 at 9:10am

//इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है

क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है

इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी

धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है// बहुत बढ़िया आदरणीय धर्मेंद्र जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 21, 2013 at 8:44am

हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ

कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है
बहुत ख़ूब ... बधाई 

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