२१२२, ११२२, २२/ ११२
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बात जो तुम से निभाई न गई,
बस वही हम से भुलाई न गई.
....
वो नई रोज़ बना ले दुनियाँ,
हम से किस्मत भी बनाई न गई.
....
थी दरो दिल पे छपी इक तस्वीर,
जल गया जिस्म, मिटाई न गई.
....
बस मेरे हक़ में बयाँ देना था,
उन से आवाज़ उठाई न गई.
....
ख्व़ाब था दिल से मिला लें हम दिल,
आँख से आँख मिलाई न गई.
....
हम गले मिलते भला किससे, कहो!
हमसे तो ईद मनाई न गई.
....
साँस थी, जान थी बाकी मुझ में,
दिल न था नब्ज़ भी पाई न गई.
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मौलिक व अप्रकाशित
निलेश 'नूर'
Comment
शुक्रिया आदरणीय सौरभ सर ..
आदरणीय नीलेशजी, आपको इस कमाल ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई. पाठकों के सुझावों पर अमल कर आपने इसके अश’आर को मायनेदारबना लिया है.
शुभ-शुभ
शुक्रिया, मेहरबानी, इनायत ... आप सभी का आभार . आदरणीय राणा प्रताप जी, आप के सुझाए अनुसार बदलाव कर लिया है .... मार्गदर्शन हेतु शुक्रिया
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है....ये दो शेर बहुत ही बेहतरीन होते और ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेर होते पर मुई ये बिंदी .......
थी हया आँख में या थे वो ख़फ़ा,
उन से पलकें ही उठाई न गई.
ख्व़ाब था दिल से मिला लें हम दिल,
याँ तो नज़रें ही मिलाई न गई.
वो नई रोज़ बना ले दुनियाँ,
हम से किस्मत भी बनाई न गई.॥ बहुत खूब दर्द उकेरा है आपने
बधाई
शानदार प्रस्तुति है वाह्ह्ह्ह्ह्ह
हम गले मिलते भला किससे कहो
हमसे तो ईद मनाई न गयी
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्
आदरणीय निलेश जी बहुत खूब गजल कही आपने
साँस थी, जान थी बाकी मुझ में,
दिल न था नब्ज़ भी पाई न गई.
वाह क्या बात
आदरणीय निलेश जी ..बेहतरीन ग़ज़ल हर शेर उम्दा..मेरी तरफ से ढेरों बधाई ..सादर
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